लगभग सोलह वर्ष पहले अध्यापन कार्य से जुड़ते ही एक लेख पढ़ाया था “सर्कस का खेमा” लेखक का नाम भूल गयी हूँ | कहानी की शुरुआत
आज भी अच्छी तरह से याद है लेखक कुछ लिख रहा था और दूर कहीं से आती सर्कस के खेमे की आवाजों और रंग बिरंगी रोशनियों ने उस का ध्यान भटका दिया था। अपने पहले कार्य को भूल कर लेखक ने सर्कस की आन-बान और शान का वर्णन करते उसकी वर्तमान उपेक्षा और दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया था।
उस लेख को पढ़ते ही मुझे किशोरवय की सर्कस से जुड़ी घटना याद हो आयी। अचानक मेरे कानों मे अपनी सहेलियों की सर्कस को लेकर चहक और स्वरों का खोयापन जैसे उन्ही की दुनिया में ले गया –“इस जगह लगा था पंडाल, यहाँ स्कूटर के साथ फोटो खिंचवायी थी और सुन...., बहुत सुन्दर लड़कियाँ थी। उनकी आँखों का खोयापन कुछ और ही कहानी कह रहा था। उस समय की कुछ सामाजिक वर्जनायें थी लड़कियाँ कहाँ बोल पाती थी आज की तरह। "तभी एक और आवाज आयी -मैनें तीन बार देखा एक बार माँ के साथ, दूसरी बार स्कूल से और तीसरी बार भुआ आयी थी उनके साथ। पागल है तू! थोड़े दिन पहले आ जाती आसाम से ; तुझे भी देखने को मिलता कैसे कहती - चार साल बाद आसाम से आना और चार साल पहले वहाँ जाना पारिवारिक विवशता थी और वे सर्कस की दुनिया मे खोयी थी। उन्हें मेरे बारे मे सोचने की फ़ुर्सत ही कहाँ थी। सभी की शादियाँ हो गईं सब अपनी अपनी गृहस्थी में रम गईं बस मैं ही नही भूल पायी उस जगह को जहाँ खड़े होकर उन सब ने बाते की थी | कभी भी भाभी के साथ निकलते उस जगह को देखा तो सदा ही मेरा मन उस काल्पनिक संसार मे जा पहुँचता | एक दिन कक्षा में सर्कस पर पाठ पढ़ाते समय शायद मैं अपनी छात्राओं को भी उसी काल्पनिक संसार में ले गयी। पाठ की समाप्ति पर कक्षा में एक प्रश्न उछला-आपने सर्कस देखा है ? और मैने जवाब दिया था नही, मगर अवसर मिला तो देखूगीं जरूर |
और अवसर मिला एक दशक के बाद जब मैं अपने भाई के यहाँ महाराष्ट्र के एक शहर में थी। स्कूल से आते ही भतीजी ने चिल्लाते हुए कहा – “सर्कस आया है हमारे स्कूल के पास। बहुत सारे लोग परदे लगा रहे थे। हम भी चलेंगे देखने ।“ दूसरे दिन महरी ने मेरी भाभी से कहा-“भाभी पन्डाल बान्ध रहे थे वो लोग, कल से "शो" चालू होगा।“ मुझे लगा सर्कस के लिए चहक तो आज भी बाकी है कल मेरी सहेलियों में थी आज अमिता मे है। दूसरे दिन मैं और भाई के दोनों बच्चे एक साथ चिल्लाये -"हमें सर्कस देखना है। और वो भी पहले दिन का पहला शो।“ भाई ने आश्चर्य के साथ कहा- “दी आप देखोगी? तीन घण्टे बैठोगी?” मगर मेरा मन बचपन के आंगन मे विचरण कर रहा था जिद्द थी भुआ और बच्चों की। हमें देखना है।
आखिर कार भाई को मानना पड़ा। खेमे मे घुसते ही गाड़ी, मोटरसाईकिल, स्कूटरों की कतारें देख कर मन जैसे झूम उठा। अदंर पन्डाल का मुख्य “प्रवेशद्वार" भव्य दिख रहा था। नीचे मैरुन रंग की दरियाँ चारों तरफ दीवारों का आभास देते पर्दें, शनील से मंढ़ी कुर्सियाँ जहाँ वातावरण को राजसी रुप प्रदान कर रहे हे थे वहीं बड़े-बड़े पोस्टर आकर्षण का मुख्य केन्द्र बने हुए थे। उन में प्रदर्शित प्राणों को जोखिम में डालते युवक- युवतियों के साथ हाथियों, शेरों व पक्षियों के अदभुत करतबों की तस्वीरें जैसे सर्कस के विषय को अनूठे ढंग से पेश कर रही थी | यह सब देखकर जैसे मैं मन्त्र मुग्ध हो उठी और तभी लाडली भतीजी ने हाथ खींचा – “भुआ अन्दर चलो” उसकी आवाज सुनकर मैं उस अद्भुत कल्पनालोक से बाहर निकली।
मुख्य मंच जहाँ करतब दिखाए जाने वाले थे वहाँ असंख्य कुर्सियाँ और सीढ़ीनुमा तख्ते बड़े करीने से लगे थे। बीचों -बीच विशाल तम्बू जिसमें ऊँचाई पर रस्सों के सहारे बन्धे झूले, गोल आकार का बड़ा सा जाल, आर्केस्ट्रा पर बजती "मेरा नाम जोकर" की धुन ने पूरे वातावरण को सर्कसमय बना रखा था लेकिन पूरे पंडाल में मुश्किल से सौ- डेढ़सौ आदमी। मैं सोचने को मजबूर हुई इतनी मेहनत और तैयारी आखिर किस लिए? "शो" शुरु हुआ- रस्सियों और झूलों पर कलाबाजियाँ खाते शरीर, काँच की शीशियों और काँच की पट्टियों पर व्यायाम का प्रदर्शन करते हुए एकाग्रता का उदाहरण पेश करते युवा चेहरे। आग के साथ खतरनाक करतब दिखाते जाँबाज, सुन्दर कन्याओं के इशारों पर दाँतों तले अगुँली दबाने के लिए मजबूर करने वाले पक्षियों के करतब, हाथी की सूण्ड के सहारे खतरनाक खेल पेश करती परी सी सुन्दर कन्या, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की धुन पर भगवान शिव की आरती करते हाथी सभी कुछ तो संगीत की मधुर धुनों के साथ आलौकिक और अद्भुत् था | समय कैसे पंख लगा कर बीता मुझे पता ही नही चला। "शो" की समाप्ति पर मैने आधी से अधिक खाली पड़ी पंडाल की कुर्सियों को भारी मन से देखा और बाहर निकलते हुए भाई के स्वर को सुना जो झल्लाते हुए कह रहा था कितने मच्छर खा गए। भतीजी का जोश ठण्डा पड़ गया था-"पापा इस से अच्छा था हम मूवी देख आते।“ उनकी बातें सुनकर मुझे फिर याद आया " सर्कस का खेमा" जो कभी मैने पढ़ाया था।
घर की तरफ लौटते हुए मैं सोच रही थी की सचमुच दयनीय दशा हो गयी है इस कला की। जिस तरह शानो शौकत और भव्य रूप में इस कला को कलाकार मंचित करते हैं उसका प्रतिदान उन्हे मिल पाता नही है। जिस भव्यता और भीड़ का जिक्र मेरी सहेलियों ने किया था वह कहीं खो गयी है। लोगों का रूझान हमारी इस पुरातन कला से हट गया है। मनोरंजन की दुनिया के इस खेल से कितने प्राणी जुड़े हैं जो इस कला को जीवित रखने के लिए अथक प्रयास करते हैं मगर आज की भागती पीढ़ी भौतिकवादी संस्कृति में इन सब बातों का अर्थ कहाँ? चंद लोग आज भी इस कला से जुड़े है और अपनी रोजी-रोटी के लिए इसे अपनाये हुए हैं बिलकुल मेरी तरह जिस के मन मस्तिष्क मे आज भी अपने कस्बे का वह स्थान अंकित है जहाँ सर्कस लगने का जिक्र सहेलियों ने किया था।
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- "मीना भारद्वाज"