जाड़ों की ठिठुरन और
तुम्हारे हाथों बने पंराठे
जायका आज भी
वैसा ही मुँह में घुला है ।
बर्फ से ठण्डे हाथ और
सुन्न पड़ती अंगुलियाँ
जोर से रगड़ कर
गर्म करने का हुनर
तुम्हें देख कर
तुम ही से सीखा है ।
गणतन्त्र दिवस की तैयारियाँ और
शीत लहर में कांपते हम
तुम्हारी जेब से निकली
मूंगफली और रेवड़ियों का स्वाद
तुम्हारे साथ ऐसी ही
ठण्ड में बैठ कर चखा है ।
वो दिन थे बेफिक्री के और
बेलगाम सी थी तमन्नाएं
पीछे झांक कर देखूं तो लगता है ….,
“वो दिन” भी क्या दिन थे।
XXXXX
यादों के गलियारे!
जवाब देंहटाएंअक्सर इन्सान का मन इन्हीं गलियारों में डूबा रहता है .आभार रचना का अवलोकन करने और प्रतिक्रिया के लिए विश्व मोहन जी.
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 19 नवम्बर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयशोदा जी रचना को "पांच लिंकों का आनन्द में" साझा कर मान देने के लिए हृदयतल से सादर आभार .
हटाएंवाह्ह्ह...सोंधी सी महक घुल गयी जेहन में...
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना मीना जी।
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार श्वेता जी .
हटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंयादों के झरोखे से..
"मंथन" पर आपका स्वागत है रचना सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद .
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआभार नीतू जी .
हटाएंवो दिन भी क्या दिन थे...सच्ची
जवाब देंहटाएंस्वागत आपका "मंथन" पर . रचना सराहना के लिए बहुत बहुत आभार अलकनन्दा जी .
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद सुशील जी .
हटाएंवो दिन भी क्या दिन थे.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब....
वाह!!!
बहुत बहुत आभार सुधा जी .
हटाएंबीते हुए तो हर दिन ही अच्छे लगते हैं ... उनमें अपनापन जो जुड़ा होता है ... फिर यादगार दिनों की तो बात ही कुछ और होती है ... बहुत ही अच्छी ररचना ...
जवाब देंहटाएंतहेदिल से शुक्रिया नासवा जी!आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है .
हटाएंतुम्हारी जेब से निकली
जवाब देंहटाएंमूंगफली और रेवड़ियों का स्वाद
मीना जी...वाह...बेहतरीन पंक्तियाँ....यादों के गलियारे से !
यादों की धरोहर सचमुच बड़ी अमूल्य होती हैं आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए अत्यन्त आभार .
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