बहुत बढ़िया! कई बार ऐसा होता है न कि मंज़िल की तलाश में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि रास्ते में खुद को ही पीछे छोड़ देते हैं। खुद की पहचान धुंधली हो जाती है, लेकिन रास्ते में जो हम बदलते जाते हैं, जो खुद को कहीं पीछे छोड़ आते हैं, वही तो असली कहानी है। अब समझ आता है कि मंज़िल से ज़्यादा जरूरी है खुद को साथ लेकर चलना। ये लाइनें सच में झकझोर देती है, जैसे कोई आईना दिखा गया हो।
आहा ... बढ़िया है त्रिवेणी ...
जवाब देंहटाएंआभार सहित सादर नमस्कार नासवा जी !
हटाएंवाह🌸
जवाब देंहटाएंआभार सहित सादर नमस्कार शिवम जी !
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित
आभार सहित स्नेहिल नमस्कार सुधा जी !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया! कई बार ऐसा होता है न कि मंज़िल की तलाश में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि रास्ते में खुद को ही पीछे छोड़ देते हैं। खुद की पहचान धुंधली हो जाती है, लेकिन रास्ते में जो हम बदलते जाते हैं, जो खुद को कहीं पीछे छोड़ आते हैं, वही तो असली कहानी है। अब समझ आता है कि मंज़िल से ज़्यादा जरूरी है खुद को साथ लेकर चलना। ये लाइनें सच में झकझोर देती है, जैसे कोई आईना दिखा गया हो।
जवाब देंहटाएंस्वागत एवं सादर आभार आपका 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआभार सहित सादर नमस्कार सर !
हटाएंसच में ... उम्दा ! काश हम अपनी आपाधापी में यों न उलझते कि आईना में अपना अक्स देखकर भी पहचान न पाते ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रतिक्रिया से सृजन का मान बढ़ा ।हृदयतल से हार्दिक आभार एवं सादर नमस्कार प्रिया जी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार सहित सादर नमस्कार सर !
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