अजब सी दुनिया की रीति
वयस घटती फिर भी बढ़ती
वक्त की गठरी सदा उलझी हुई क्यों है
रिक्त होते समय-घट का , नियम यही है
मौन में तो सदा जड़ता
बोलने में ही प्रगल्भता
खामोशी पर शोर रहता भारी सा क्यों है
सही सदा लीक, बस चिन्तन नगण्य है
लहर तट तक आए जाए
हवा मोद में इठलाए
रेत पर फिर क्षुद्र जलचर तड़पते क्यों हैं
निज हित ऊँचे , समय सब का नही है
नित्य करें धरती के फेरे
चन्द्र संग उडुगण बहुत से
चल-अचल में नियम , आदमी ऐसा क्यों है
प्रश्न तो हैं , मगर उत्तर नहीं हैं
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