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शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

कुछ दिनों से....

कुछ दिनों से

खुद ही हारने लगी हूँ

अपने आप से

दर्द है कि घर बना बैठा

तन में…,

घिरते बादलों और डूबते सूरज

को देखते-देखते

ठंड बाँध देती है 

मेरे इर्दगिर्द

 दर्द और थकन की चादर

ज्यों ज्यों गोधूलि की चादर

लिपटती है धरा की देह पर

मन छूने लगता है

झील की अतल गहराई 

 भोर के इन्तज़ार में

नौका पर सवार मांझी

चंद शफरियों की टोह में

ज्यों ही दिखता है

तब….,

बादलों से भीगा

गीला सा एक विचार

थपकियों के साथ देता है

स्नेहिल धैर्य…,कि

इस रात की भी

कभी तो सुबह  होगी 


***