Copyright

Copyright © 2024 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

गुरुवार, 30 मार्च 2017

“सिया के राम” (हाइकु)

प्रिय लखन
फरकै वाम अंग
जी में संशय ।

हे  ! मृग छौने
मेरी मृगनैयनी
थी यहीं-कहीं ।

भ्रमर पुंज
लता-प्रसून कुंज
देखी वैदेही ?
 
रघु नन्दन
नील नैन निर्झर
व्याकुल मन ।

हे पर्णकुटी
मौन सी पंचवटी
कहाँ जानकी ?

रोए राघव
दुखी जड़-जंगम
हा ! मेरी सीय ।

XXXXX

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

“गुरुदक्षिणा”

उदास शब्दों के जादूगर !
तुम से मैंने बहुत कुछ सीखा है ।
ख्यालों की खूबसूरती​ और
जमीन की हकीकत ।

जीवन की हकीकत , किताबों में नही ,
दुनियां की रवायतों में होती है ।
मैंने जाना तुम से यह शब्दों की सुघड़ता में
चैन की नींद सोती है ।

तिनका-तिनका  गूंथ कर ,
बैया के घोंसले की मानिंद तुम ।
अपने दर्द को शब्दरुपी रंगों में ढाल
जिन्दगी का खाली कैनवास भरते हो ।

उदास शब्दों के जादूगर !
तुम से मैंने बहुत कुछ सीखा है ।
ख्यालों की खूबसूरती​ और
जमीन की हकीकत ।

XXXXX


रविवार, 19 मार्च 2017

“अवसर”


स्कूल में दसवीं कक्षा में अनिवार्य सा कर दिया था कि
प्रवेश-पत्र लेने आने से पूर्व तक हर छात्र-छात्रा को “साक्षरता-अभियान” के अन्तर्गत किसी एक अनपढ़
को अक्षर-ज्ञान से पारंगत करना है । कई बार दूर - दराज मौहल्लों में हमें समूह में स्कूल की तरफ से ले जाया
जाता था जहां की अधिकांश महिलाएं और बालिकाएं  अक्षर-ज्ञान से वंचित थीं । मगर 
कहते हैं न कि इन्सान सदा अपने लिए shortcut ढूंढता
है , मैंने भी ढूंढ लिया था । घर काम 
करने आने वाली महरी जिन्हें हम चाची कहते
थे - उनकी बेटी । अक्सर वह चाची के व्यस्त होने पर
काम के लिए आया करती थी , मैंने अपने मिशन को पूरा करने के लिए उसे चुना । जब भी वो काम के लिए
आती मैं कापी-पेन्सिल लेकर अपने मिशन को पूरा
करने के लिए जुट जाती । मूडी होने के कारण
कभी वह ध्यान से पढ़ती तो कई बार पढा़ई को बेकार
काम बता कर मुझे निराश कर देती । 
एक दिन उसने बर्तन साफ करते हुए बडी़ सी थाली
में मिट्टी भर कर अंगुली से अपना नाम उकेर कर
मुझे आवाज दी -- 'देख ठीक है !’
मैंने​ खुशी से लगभग चिल्लाते हुए कहा -- 'वाह !
तू तो बड़ी intelligent निकली ।'
गर्मियों में बिजली गुल होने पर पंखे - कूलर बंद
 होते ही रात के समय आस-पास की आवाजें 
साफ सुनाई देती हैं । शादी के गीतों की आवाजें 
सुन कर पूछने पर पता चला महरी की बेटी की 
शादी है। दूसरे दिन मैंने पूछा --’ आप इतनी सी 
उम्र में उसकी शादी क्यों कर रहीं हैं ? मां ने मुझे
 टोका --'पढा़ई कर ! बड़ों की बात में नहीं बोला 
करते ।’ लेकिन चाची ने उत्तर दिया बड़ी शांति से -- 'मेरे जितना कद हो गया है उसका , घर संभाल लेती है ।
अच्छा वर मिल रहा था अवसर हाथ से कैसे जाने देती ।'
 लगभग चार-पांच साल बाद एक दिन  वो गली के
छोर पर खड़ी नगर-पालिका में निर्वाचित हमारे ward member को लताड़ रही थी -- ‘ नालियां कितनी
गंदी हैं ?  कूड़े के ढेर गली के कोने पे लगे पडे़ हैं। किस
बात के नगरपालिका सदस्य हैं आप ? हमारे गांव चलकर देखो आप ! मजाल है कहीं अव्यवस्था मिल जाए।’
उसकी हिम्मत से अचंभित थी मैं । जब वह घर
मिलने के लिए आई तो पता चला कि वो अपने ससुराल
में अपने वार्ड की निर्वाचित सदस्य 
थी । नगरपालिका चुनाव में उसका वार्ड  महिलाओं के
लिए सुरक्षित सीट वाला था । वो साक्षर थी “अवसर“ मिल रहा था और वो अवसर चूकने वालों में से नही थी ।

★★★★★

बुधवार, 15 मार्च 2017

"घर"

बहुत दिन बीते मेरा घर ,
मेरे लिए परदेसी सा  हो गया है ।
मेरी ही तरह अपने  ही शहर में ,
अजनबी सा हो गया है ।
खाली छत पे  झुका बूढ़ा सा पेड़,
टूट गया या पता नही, हरा खड़ा होगा ।
कच्चा आंगन था मिट्टी वाला ,
शायद अब कंकरीट पड़ा होगा ।
राबता है उसके संग ऐसा,
सांसों की डोर सा बंधा रहता है ।
मैं जाऊँ चाहे कहीं भी  यादों में ,
साये सा साथ रहता है ।

XXXXX

शनिवार, 11 मार्च 2017

"स्वभाव"

कुछ किस्से , कहानियाँ  और बातें कालजयी होती हैं और वे हर generation के साथ परिस्थितियों के अनुसार सटीक बैठती हैं । अक्सर सुना है generation gap के कारण बहुत सारी चीजें बदल.जाया करती हैं जैसे फैशन और विचार , सोचने -समझने की पद्धति । कई बार भारी परिवर्तन के कारण सांस्कृतिक परिवर्तन भी दिखाई देते हैं मगर संस्कृति की अपनी विशेषता है यह  नए बदलावों  को आत्मसात करती निरन्तर गतिमान रहती है । बेहतर बातें कालजयी और सामयिक बातें समय के साथ समाप्त हो जाती हैं ।
                आज मैं एक छोटी सी कहानी आप सब से साझा करना चाहूँगी जिसकी ‘सीख’ आजकल की बोल-चाल भाषा में  "moral of the story" मेरे मन.को बहुत बार कठिन परिस्थितियों मे भटकने से रोकता  है ।
.                           एक व्यक्ति प्रतिदिन प्रातःकाल नदी में स्नान करने जाता था एक दिन उसने देखा , एक बिच्छू नदी के जल में डूब रहा है । उस व्यक्ति ने तुरन्त बिच्छू को बचाने के लिए अपनी हथेली उसके नीचे कर दी और बिच्छू को किनारे पर छोड़ने के लिए जैसे ही हथेली को ऊपर किया हथेली की सतह पर उसने डंक मार दिया ।दर्द से तड़प कर व्यक्ति ने जैसे ही हाथ झटका कि बिच्छू पुनः पानी में डुबकी खा गया । उस आदमी ने अपने दर्द को भूलकर अब की बार दूसरे हाथ से उसे बचाने का प्रयास जारी रखा । एक भला मानस नदी किनारे बैठा सम्पूर्ण घटनाक्रम को देख रहा था उस से रहा नही गया ,वह बोला - “ मूर्ख इन्सान ! एक बार के डंक से जी नही भरा कि दूसरा हाथ आगे कर दिया। “

                                   डूबते -उतराते बिच्छू से दूसरी हथेली में डंक खाने के बाद उसको निकालने के लिए प्रयास करते आदमी ने मासूमियत से उत्तर दिया -  “ जब यह संकट की घड़ी  में अपने स्वभाव और गुण को नही भूल पा रहा तो मैं इन्सान होकर अपने गुण और स्वभाव का परित्याग कैसे करुं। “

XXXXX

मंगलवार, 7 मार्च 2017

"क्षणिकाएँ"

(1)       
              
पगडंडियों में बिखरे फूल-पत्तों को देख कर
एक ख्याल सिर उठा कर मुझ से एक
सवाल पूछता है --”वसन्त आता है
तो ठीक है , प्रकृति सज  सी जाती है
मगर साथ में पतझड़ क्यों ?
क्या चाँद में दाग जरुरी है ।

(2)

बादलों की रजाई से आँख-मिचौली खेलते चाँद से
मैनें एक सवाल पूछा --”तुम्हारी चाँदनी की रोशनाई से
नीले अम्बर की देह पर , तुम्हारे नाम कुछ लिख छोड़ा था
फुर्सत मिली क्या? मेरा लिखा पढ़ा क्या?

XXXXX

शनिवार, 4 मार्च 2017

"ख़त"

मन की खाली स्लेट पर मैनें
तुम्हारे नाम एक खुला ख़त लिखा है
तुम्हारा मंद हास और आँखों का नूर
मेरे मन के खाली कैनवास  को
वासन्ती फूलों से ढक देता है
तुम्हारी दूरी मन में खालीपन और
सांसों में बोझिलपन भर देती है
वक्त जैसे थम सा जाता है और
मेरी सोचों का दायरा बस तुम्हारे
इर्द-गिर्द  ही सिमट कर रह जाता है
क्या करूं ---  मेरे जीवन की डोर
बस तुम्ही से बँधी है और तुमसे.
दूरी के अहसास से  मेरे मन में
बोझलपन और विचारों में रिक्तता भरती है ।

XXXXX

बुधवार, 1 मार्च 2017

"अपनी बात"


“होली” चन्द दिनों के बाद है .बसन्त-पंचमी से पीले रंगों की शुरुआत की छटा की छवि का चरमोत्कर्ष होली के त्यौहार पर होता है।  देश के सुदूर दक्षिण में स्थित प्रान्तों में यद्यपि होली अब अजनबी त्यौहार नही रहा ।  नीले - पीले रंगों से रंगे चेहरे याद दिला देते हैं कि परम्परा अब भी कायम है लेकिन ना जाने क्यों मुझे  सब कुछ सतही और ऊपर से ओढ़ा हुआ सा लगता है । मैं खो जाती हूँ उन यादों में जब हल्की सी सर्दी  में चंग की थाप के साथ होली के गीतों के साथ निकलती टोलियाँ और मोहल्ले के चौक में रात के समय नंगाड़े की लय से लय मिलाती डांडियों की गूंज और “गीन्दड़” देखने की उत्सुकता। जिसकीे प्रतीक्षा पूरे वर्ष में फाल्गुन महिने की याद दिलाया करती थी और उसी के साथ आरम्भ हो जाता था  परीक्षाओं का मौसम ।  मौहल्ले में गिनती रहती थी किस घर से कौन सा बच्चा  बोर्ड की ( दसवीं व बारहवीं) परीक्षा में बैठ रहा है । “तैयारी कैसी है ? नाम रोशन करना है अपने मोहल्ले का ..।” इस जुमले के साथ चौपाल पर बैठक लगाने वाले भी परीक्षाओं की तैयारी त्यौहारों की तैयारी के समान आरम्भ कर देते थे । कोई भी बच्चा परीक्षा के दिनों में कम से कम गली में खेलता-कूदता नजर आने पर इन लोगों की लताड़ से अपने आप को नही बचा पाता था। हम बीसवीं से इक्कीसवीं सदी में आ गए , पुरातन आवरण उतार फेंका  और नया  पहन कर वैश्ववीकरण (globalization) के दौर में शामिल गए । हमारे पास वक्त का अभाव हो गया  ,  प्रतिस्पर्धा भाव  (competition)  मुख्य हो गया और अपनापन कहीं खो सा गया । मगर  फिर भी रंगों की बहुरंगी आभा  खींचती रही अपनी ओर ….., वासन्ती और लाल-गुलाबी रंगों की कशिश जो ठहरी । सोचती हूँ अब हमारे गाँव भी cashless हो गए हैं  और demonetization भी हो गया है।  शहरों की हवाएँ गाँवों की तरफ बहने लगी है  कहीं जमीन से जुड़े अपनेपन को शहरों की हवा ना लग जाए ।

XXXXX