Followers

Copyright

Copyright © 2023 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

बुधवार, 1 मार्च 2017

"अपनी बात"


“होली” चन्द दिनों के बाद है .बसन्त-पंचमी से पीले रंगों की शुरुआत की छटा की छवि का चरमोत्कर्ष होली के त्यौहार पर होता है।  देश के सुदूर दक्षिण में स्थित प्रान्तों में यद्यपि होली अब अजनबी त्यौहार नही रहा ।  नीले - पीले रंगों से रंगे चेहरे याद दिला देते हैं कि परम्परा अब भी कायम है लेकिन ना जाने क्यों मुझे  सब कुछ सतही और ऊपर से ओढ़ा हुआ सा लगता है । मैं खो जाती हूँ उन यादों में जब हल्की सी सर्दी  में चंग की थाप के साथ होली के गीतों के साथ निकलती टोलियाँ और मोहल्ले के चौक में रात के समय नंगाड़े की लय से लय मिलाती डांडियों की गूंज और “गीन्दड़” देखने की उत्सुकता। जिसकीे प्रतीक्षा पूरे वर्ष में फाल्गुन महिने की याद दिलाया करती थी और उसी के साथ आरम्भ हो जाता था  परीक्षाओं का मौसम ।  मौहल्ले में गिनती रहती थी किस घर से कौन सा बच्चा  बोर्ड की ( दसवीं व बारहवीं) परीक्षा में बैठ रहा है । “तैयारी कैसी है ? नाम रोशन करना है अपने मोहल्ले का ..।” इस जुमले के साथ चौपाल पर बैठक लगाने वाले भी परीक्षाओं की तैयारी त्यौहारों की तैयारी के समान आरम्भ कर देते थे । कोई भी बच्चा परीक्षा के दिनों में कम से कम गली में खेलता-कूदता नजर आने पर इन लोगों की लताड़ से अपने आप को नही बचा पाता था। हम बीसवीं से इक्कीसवीं सदी में आ गए , पुरातन आवरण उतार फेंका  और नया  पहन कर वैश्ववीकरण (globalization) के दौर में शामिल गए । हमारे पास वक्त का अभाव हो गया  ,  प्रतिस्पर्धा भाव  (competition)  मुख्य हो गया और अपनापन कहीं खो सा गया । मगर  फिर भी रंगों की बहुरंगी आभा  खींचती रही अपनी ओर ….., वासन्ती और लाल-गुलाबी रंगों की कशिश जो ठहरी । सोचती हूँ अब हमारे गाँव भी cashless हो गए हैं  और demonetization भी हो गया है।  शहरों की हवाएँ गाँवों की तरफ बहने लगी है  कहीं जमीन से जुड़े अपनेपन को शहरों की हवा ना लग जाए ।

XXXXX

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"