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शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

"तुम"



तुम इतने चुप क्यों रहते हो ?
मन ही मन में क्या सहते हो ?

सब में शामिल अपने में गुम ।
उखड़े-उखड़े से दिखते हो ।।

टूटा है यदि दिल तुम्हारा ।
गम की बातें कह सकते हो ।।

मन में अपने ऐंठ छुपाए ।
सब से सुन्दर तुम लगते हो ।।

लगते हो तुम मलयानिल से ।
जब अल्हड़पन से हँसते हो ।।

आगे बहुत अभी है चलना ।
थके थके से क्यों दिखते हो ।।

होते हो जब सामने मेरे ।
मुझको अपने से लगते हो  ।।

( कभी एक गज़ल सुनी थी "इतनी मुद्दत बाद मिले हो " और वह इतनी खूबसूरत लगी कि मेरे मन से इस गज़ल का सृजन हुआ)



            ✍ ✍ ✍ ✍

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

"तुम्हारे लिए'

अपनी उम्र के गुजारे सारे बरस ,
मैनें तुम्हारी झोली में बाँध दिए हैं ।
खट्टी - मीठी गोली वाले ,
नीम की निम्बौरी वाले ।
जो कभी तुम्हारे साथ ,
तो कभी अपने आप जीए हैं ।

मेरे बचपन वाले दिन ,
जरा संभाल कर रखना ।
बिखर न जाएँ कहीं ,
गिरह कस कर पकड़ना ।
मेरे अपने हो तुम ,
तभी तो तुम से साझा किए हैं ।

ऐसा नहीं कि मैं परेशान हूँ ,
अपने सफर से कोई हैरान हूँ ।
मुट्ठी से फिसलती बालू रेत सी ,
जो रह गई हथेली में लगी…,बस ।
उसी उम्र के बचे शेष बरस ,
केवल और केवल तुम्हारे लिए हैं ।

          XXXXX

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

"चिन्तन"(चोका)

क्षणभंगुर
अपना ये जीवन
शून्य जगत
जीवन का पहिया
कोल्हू सा लागे
मानव बँध भागे
सूझे ना आगे
मुझसे मन पूछे
खुद का स्वत्व
मैं दृगों में अटका
अश्रु बिन्दु सा
बन के खारा जल
बिखर जाऊँ
कोमल गालों पर
या बन जाऊँ
किसी सीप का मोती
कर्मों का फल
तुझ पर निर्भर
स्वयं को प्रेरित कर

  XXXXX

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

"कसौटी"

वादों का अब दौर गया।
सीखेंगे फिर हुनर नया ।।

किस किस पर यकीं करें ।
मन में सब के द्वेष भरा ।।

सच्चाई का भान नही।
बेमतलब का शोर मचा ।।


जितने मुँह उतनी बातें ।
अपने में हर एक खरा ।।


काई वाली राहें  आगे ।
सोचे मनवा खड़ा खड़ा ।।

               XXXXX

रविवार, 9 दिसंबर 2018

"अन्तर्द्वन्द्व" (माहिया)

कुछ तीखी लगती  हैं
लोगों की बातें
लगने पर दुखती हैं

तुम से कुछ कहना है
हो चाहे कुछ भी
बस यूं ही रहना है
चल आगे बढ़ते हैं
करना क्या है अब
बस राह पकड़ते हैं

करनी अपने मन की
सुर  सबका अपना
अपनी अपनी ढफली

कब कितना याद करूँ
उलझन है खुद की
मैं कौन राह गुजरूँ

    ✍️ -------- ✍️

बुधवार, 5 दिसंबर 2018

"उलझन"

अपनी कुछ ना कहता है मन ।
खुद में  डूबा रहता है  मन ।।

खामोशी की मजबूरी क्या  ?
मुझसे कुछ ना कहता है मन ।।

शोर मचाती इस दुनिया में ।
चुप्पी से सब सहता है मन ।।

इठलाती चंचल नदिया की ।
धारा बन कर बहता है मन ।।

समझाने से कुछ ना समझे ।
खुद की धुन में रहता है  मन ।।


                  XXXXX

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

'हाइकु"


"ऊषा स्वस्ति"

सिमट गया
नींद के आगोश में
भोर का तारा

सृष्टि के रंग
ऊषा की लाली संग
निखर गए

गीली सी धूप
हँसते दिनकर
चहके पंछी

नव आरम्भ
जागे जड़-चेतन
प्रातः वन्दन

XXXXX

बुधवार, 28 नवंबर 2018

"उलझन"(तांका)

पीर पराई
समझो तो समझे
तुम्हें खुद के
सुख-दुख का साथी
जीवन अनुरागी

मन ये मेरा
अभिव्यक्ति विहीन
भ्रम मोह के
मुझ से न सुलझें
उलझे से बंधन

कुछ ना कहो
नयन बोलते हैं
मन की वाणी
बिन बोले कहते
अनसुलझी बातें
मन दर्पण
घट घट की जाने
जानी अंजानी
सुख-दुख की बातें
कितनी फरियादें

    XXXXX

शनिवार, 24 नवंबर 2018

"रूमानी हो जाएँ "

झील का किनारा और ऊँचे पहाड़
हरी-भरी वादी में वक्त बितायें ।
मन ने ठानी है आज
हम भी रूमानी हो जाएँ ।।


ओस में डूबी कुदरत
हम भी एस्किमोज बन जाएं।
डाले जेबों में हाथ
मुँह से भाप उड़ाएँ ।।


सोने सी बिखरी सैकत
रेतीले धोरों पर चलते जाएँ ।
मिलाएँ कदम से कदम
पीछे निशान छोड़ते जाएँ ।।


कभी नेह कभी तकरार
आपस में साथ निभाये ।
कभी मैं…, कभी तुम…,
एक दूजे के रंग में ढल जाएँ ।।


छोटी -छोटी बातों से अपना दिल बहलाएँ ।
चलो…, हम भी थोड़ा रूमानी हो जाएँ ।।
XXXXX

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

"फिक्र"

मेरी कुछ यादें और उम्र के अल्हड़ बरस ।
अब भी रचे-बसे होंगें उस छोटे से गाँव में ।।


जिसने ओढ़ रखी है बांस के झुरमुटों की चादर ।
और सिमटा हुआ है ब्रह्मपुत्र की बाहों में ।।


आमों की बौर से लदे सघन कुंजों से ।
पौ फटते ही कोयल की कुहूक गूँजा करती थी ।।


गर्मी की लूँ सी हवाएँ बांस के झुण्डों से ।
सीटी सी सरगोशी लिए बहा करती थी ।।


हरीतिमा से ढका एक छोटा सा घर ।
मोगरे , चमेली और गुलाबों सा महकता था ।।


अमरूद , आम और घने पेड़ों  के बीच ।
हर दम सोया सोया सा रहता था ।।


बारिशों के मौसम में उसकी फिक्र सी रहने लगी है ।
नाराजगी में नदियाँ गुस्से का इजहार करने लगी हैं ।।



                      X X X X X

बुधवार, 14 नवंबर 2018

'समझाइश' (माहिया)

कुछ गुजरे दिन दीखे
तुम से मिलने पर
विकसे कमल सरीखे


अपनी नेह कहानी
जानी पहचानी
लगती सरल सुहानी


ऐसे कुछ ना सोचो
कुछ पल रह कर चुप
सब सुन कर कुछ बोलो


रेशम के धागे हैं
जग के रिश्तों में
कितनी ही गांठें हैं
_____________

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

।। मुक्तक ।।

  ( 1 )


तेरे सारे ख़त मैंने कल जला दिए ।
यादों के निशां दिल से मिटा दिए ।।
आज आकर फिर यूं  सामने मेरे ।
गुजरे पल फिर क्यों दोहरा दिए ।।
     
                 ( 2 )

मैं तुझ पे यकीन करूं कैसे ।
तुम्हारे मन को मैं जानूं कैसे ।।
वक्त चाहिए खुलने में गिरहें ।
है सब कुछ ठीक मानूं कैसे ।।


( 3 )

हम तुम्हारा यकीन कर लेते हैं ।
ख्वाब बंद आँखों में भर लेते हैं ।।
मत देना उम्र से लम्बा इन्तजार ।
हम भी दोस्ती का दम भर लेते हैं ।।

                 ( 4 )

रूठे हैं जो उन्हें मना के दिखाओ ।
हुनर अपनी समझ का दिखाओ।।
आसान नहीं कोई भी मंजिल ।
अर्जमंदी से मंजिलें पा के दिखाओ ।।

            XXXXX


शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

“पूर्णमासी” ( चोका)

लुप्त चन्द्रमा
बादलों की ओट में
काली घटाएँ
टिप टिप बरसे
मन आंगन
सावन भादौ सा
भीगा ही भीगा
नेहामृत छलके
नेह घट से
अश्रु बूँद ढलके
पूनम यामा
नभ घन पूरित
चाँदनी को तरसे

XXXXX

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

आज और कल

जब से मिट्टी के घड़ों का चलन घट गया ।
तब से आदमी अपनी जड़ों से कट  गया ।।

कद बड़े हो गए इन्सानियत घट गई ।
जड़ें जैसे अपनी जमीं से कट गई ।।

खाली दिखावा रह गया नेह कहीं बह गया ।
अपनेपन की जगह मन भेद जम के रह गया ।।

नीम पीपल घर में बोन्साई सज्जा हो गए ।
कच्चे आंगन वाले घर जाने कब के खो गए ।।

मन वहीं तुलसी के बिरवे सा बंध के रह गया ।
वक्त का पहिया बस धुरी पर फिरता रह गया ।।
               
                       XXXXX

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

"प्रभात वेला” ( तांका )

( 1 )
उजली हँसी
खन खन खनकी
सुन के लगा
भोर वेला में कहीं
कलियाँ सी चटकी

( 2 )

एक टुकड़ा
सुनहरी धूप का
छिटक गया
मन के आंगन में
चपल हिरण सा

( 3 )

बिखर गई
अंजुरी भर बूँदें
ओस कणों की
धुली धुली निखरी
कलियाँ गुलाब की

XXXXX

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

" त्रिवेणी"

( 1 ) गीली रेत पर कभी उकेरी थी एक तस्वीर ।
समेट ले गई सब कुछ वक्त की लहर ।

बस कुछ शंख सीपियों के निशान बाकी हैं ।।

( 2 ) कभी कभी बेबाक हंसी ।
बेलगाम झरने सरीखी होती है ।

गतिरोध आसानी से हट जाया करते हैं ।।

( 3 ) आज कल बोलने का वक्त है ।
कहने सुनने से आत्मबल बढ़़ जाता है ।

मछली बाजारों में बातें कहां शोर ही सुनता है ।।
XXXXX

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

"माहिया" ( स्वीकारोक्ति )

(1) बचपन कब बीत गया
इस के जाने से
मन मेरा रीत गया

(2) मैं तो बस ये जानूं
तुम को  ही अपना
सच्चा साथी मानूं

(3) लम्बी बातें कितनी
नापूं तो निकले
गहरी सागर जितनी

(4) मैं याद करूं क्या क्या
बीच हमारे थीं
सौ जन्मों की बाधा

(5) छोटी छोटी बातें
अब लगती हैं सब
जन्मों की सौगातें

XXXXX

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

।। रोला छंद ।। "सीख”

विषम चरण  - ११ मात्राएं
सम चरण  - १३ मात्राएं

( १ )   मन ने ठानी आज , सृजन हो नया पुराना ।
        मिली-जुली हो बात , लगे संगम की धारा ।।

( २ )   हो सब का सम्मान , कर्म कुछ ऐसे कीजै ।
        बने एक इतिहास , देख सुन के सब रीझै ।।

( ३ )   रहना सब को साथ , जिद्द होगी बेमानी ।
        विलग करो अभिमान , छोटी सी जिंदगानी ।।

( ४ )   भोर करे संकेत , हुआ है नया सवेरा ।
         दुनिया एक सराय , मुसाफिर वाला डेरा ।।

( ५ )   होते नहीं निराश , राहें और भी बाकी ।
        मन अपने को साध , वही सुख-दुख का साथी ।।

                         XXXXX

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

"जीवन रंग"

भोर का तारा जा सिमटा
नींद के आगोश में ।
अरूणाभ ऊषा ने
छिड़क दिया सिंदूरी रंग
कुदरत के कैनवास पर ।

पूरी कायनात सज गई
अरूणिम मरकती रंगों से ।
भोर की भंगिमा निखर गई
प्रकृति के विविध अंगों से ।

सात रंगों की उजास ने
सूर्य प्रभामंडल संग मिल
श्वेताभ रंग बिखेर दिया ।
सृष्टि को कर्मठता से
कर्मपथ पर कर्मरत रहने
हेतु संदेश दिया ।

विश्रान्ति काल ……..,
सांझ का तारा ले आया
टिमटिमाता मटियाला कम्बल ।

चाँद-तारों से बात कर
प्राणों में ऊर्जा संचित कर ।
कर्म क्षेत्र की राह पर
कर्मठता का रथ तैयार कर ।

         XXXXX

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

"वक्त"

वक्त मिला है आज , कुछ अपना ढूंढते हैं ।
करें खुद से खुद ही बात , अपना हाल पूछते  हैं ।।

कतरा कतरा वक्त , लम्हों  सा बिखर गया ।
फुर्सत में खाली हाथ , उसे पाने को जूझते हैं ।।

दौड़ती सी जिंदगी , यकबयक थम गई ।
थके हुए से कदम , खुद के निशां ढूंढते हैं ।।

गर्द सी जमी है ,  घर के दर और दीवारों पर  ।
मेरे ही मुझ से गैर बन , मेरा नाम पूछते हैं ।।

ज़िन्दगी की राह में , देखने को मिला अक्सर ।
दोस्त ही दुश्मन बन  , दिल का चैन लूटते हैं ।।

XXXXX

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

“तृष्णा”

अभिव्यक्ति शून्य , भावों से रिक्त ।
तृष्णा से पंकिल , ढूंढता असीमित ।।

असीम गहराइयों में , डूबता-तिरता ।
निजत्व की खोज में ,रहता सदा विचलित ।।

दुनियावी गोरखधंधों से , होता बहुत व्यथित ।
सूझे नही राह कोई , हो गया भ्रमित ।।

मृगतृष्णा में फंसे , तृषित हिरण सा ।
मरु लहरियों के जाल से , है बड़ा चकित ।।

तृष्णा में लिपटा , खुद को छलता ।
मेरा मन अपने आप में , होता सदा विस्मित ।।

XXXXX

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

"लघु कविताएं"

( 1 )

तुम्हारे और मेरे बीच
एक थमी हुई झील है
जिसकी हलचल
जम सी गई है ।
जमे भी क्यों नहीं…..,
मौसम की मार से
धूप की गर्माहट
हमारे नेह की
आंच की मानिंद
बुझ सी गई है ।
 ( 2 )

सांस लेने दो इस को
शब्दों पर बंधन क्यों
यह नया सृजन है
कल-कल करता निर्झर
अनुशासनहीन  नहीं
मंजुलता का प्रतीक है
 
      XXXXX