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शनिवार, 30 मई 2020

"मानवता"



स्वार्थ जब हो बड़े अपने 

मानवता- चर्चा कैसे हो ।

फूटते पाँवों के छाले ।

दर्द महसूस हो तो हो ।।


कहीं पर भोर है उजली ।

 कहीं चहुंओर अंधियारा ।।

बना पत्थर हृदय माली ।

 तिनके का कौन सहारा ।।


धरती पर आग बरसती है ।

मेघों का पानी भी सूखा ।।

चले जा रहे हैं जत्थों में ।

बेबसों का मन बल है ऊँचा ।।


अरे ओ पत्थर दिल वालों ।

कभी इनकी भी सुध तो लो ।।

छोड़ कर तूं- मैं  तुम अपनी ।

कभी तो जन-सेवा कर  लो ।।


संकट से उबरे सब निर्बल ।

दायित्व निबाहो अब मन से ।।

मत फेरो अपनी आँखे तुम ।

आपदा ग्रस्त जन रक्षण से ।।

            

 🍁🍁🍁


【 चित्र - गूगल से साभार 】

रविवार, 24 मई 2020

"इन्तज़ार"

 इन्तजार..और
प्यार करने का हक
उनका भी है 
तभी तो क्वींसलैंड
के नीले समुद्री छोर पर
पर्यटकों का
इन्तज़ार करती हैं 
डॉल्फिनस्...
लॉकडाउन उन्हें लगता है 
इन्सान की नाराजगी 
दबाये मुँह में ला रही हैं
सीप-शंख के साथ
लकड़ी के  टुकड़े ...
 मानो .. रूठे इन्सान को
मनाने की खातिर
उनकी तरफ से यह 
दुर्लभ भेंट हो ...
वे नहीं जानती
कोरोना का प्रकोप
 करती हैं 
 इन्तज़ार इन्सान का…
और..लौट जाती हैं 
फिर से आने के लिए ...
 इस उम्मीद के साथ
 कि.. मना लेंगी 
येन केन प्रकारेण 
एक दिन इन्सान को...
अद्भुत और अकल्पनीय है ।
उनका निश्छल स्नेह...
🍁🍁🍁
【चित्र-गूगल से साभार】

शुक्रवार, 22 मई 2020

"मजदूर"

 विकास रथ की धुरी सहित
अर्थ व्यवस्था अट्टालिका के
नींव प्रस्तर...
तुम कमतर कैसे हो गए

दर दर की झेलते अवहेलना
अपने श्रम से खड़े करते
गगनचुंबी भवन…
अपने ही घर में प्रवासी कैसे हो गए

मूल्य समझो कभी तो निज मान का
बनते अंग सदा भीड़ तंत्र का
जनता जनार्दन हो तुम …..
विपद- बेला में दीन कैसे हो गए

उपेक्षा का गरल पीयोगे कब तक
चलना संभल सीखोगे कब तक
पर्वत जैसे धीरज वालों ...
तुम इतने अधीर कैसे हो  गए

तुम्हारे बल पर रोटियां सिकती 
सत्ता और शक्ति की गोट चलती 
कभी तो हो स्व हित में चिन्तन ….
सदा शोषित तुम ही कैसे हो गए

****

【चित्र-गूगल से साभार】








शनिवार, 16 मई 2020

"प्रतीक्षा" 【 माहिया】

नव पल्लव अंकुआये
किसलय पंक्ति देख
सूखे तरु हरषाये

गोकुल की सब गौरी
मिलने कृष्णा से
निकली चोरी-चोरी

महकी पाटल कलियाँ
वृष्टि हुई अब तो
मिल बात करें सखियाँ

मग देख रहे नैना
कब आओगे तुम
चितचोर जरा कहना

बेला - जूही महकी
छलिया है कान्हा
कहती चलती-चलती
🍁🍁🍁

【 चित्र-गूगल से साभार】

बुधवार, 13 मई 2020

"ख्वाब"

कस के मुट्ठी में बंद हैं वे
माँ से जिद्द कर लिए
सिक्के की तरह…
स्कूल से आते समय
खानी है टॉफी 
संतरे वाली..जीरे वाली…
उस वक्त...
वो सिक्का गुम गया
निकाल लिया किसी ने
पेन्सिल बॉक्स से...
या फिर
गिर गया कहीं
मेरी ही लापरवाही से… 
ख्वाब बस ख्वाब ही रहा
मगर याद रही नसीहत...
जो माँ ने दी-
सहेज कर रखो जो दुर्लभ है
तुम्हारी खातिर...
माँ की वो बात आज भी याद है
पूरी प्रगाढ़ता से
बाँध रखे हैं मुट्ठी में चंद ख्वाब...
जो मेरे वजूद के साथ मेरे अभिन्न हैं
वक्त के साथ वे ...
रिहाई मांगना भूल गए
और मैं मुट्ठी खोलना … ।।।
*****
【गूगल से साभार】

शनिवार, 9 मई 2020

"गुलमोहर"

गुलमोहर...
लाल-पीले फूलों की झब्बेदार 
टोकरी जैसे भरी धूप में 
किसी ने उलट के रख दी 
तने के सिर पर…
उस पेड़ को देख भान होता  है
जैसे.. कुदरत ने 
छतरी तान रखी हो...
मन्त्रमुग्ध सा करता है
अपनी मधुरिमा से
गुलमोहर...
बचपन में खेलते-पढ़ते
बंट जाता था ध्यान
जब कहीं  दूर से सुन जाता
 यह गीत...
'गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता…'
नहीं जानती लिखते वक्त
कौन बसा था ...
'सम्पूर्ण सिंह कालरा जी' के मन में
मगर जब भी जिक्र होता है 
गुलमोहर का..
मेरी स्मृति-मंजूषा से निकलती है
गुड़ की मिठास सी
 वात्सल्यमयी आवाज
 गुलमोहर…!!
🍁🍁🍁

【चित्र: गूगल से साभार】

शनिवार, 2 मई 2020

"थमी सी जिन्दगी"

समाचार सुनते हुए एक दिन न्यूज चैनल पर देखा-- "कोई बीमारी है 
जो चीन के वुहान प्रान्त में फैल रही है ।" हॉस्पिटलों की अफरा-तफरी देख दुख हुआ और बीमारी का कारण "वैट मार्केट" है यह जान
कर क्षोभ भी कि क्या जरूरी है कुछ भी खाना ।ऐसे में ही एक दिन जाना कि इस बीमारी ने विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत में 
भी दस्तक दे दी है ।
मेरी घूमने की आदत है बचपन से ही .. पहले घर की
लम्बी-चौड़ी छत पर शाम को बहन-भाइयों के साथ खेलते-खिलाते और बाद में दिन भर के कामों से फुर्सत पा कर अपने साथ जुड़े रहने 
की खातिर कब आदत जीवन का अविभाज्य बन गई पता ही नहीं 
चला । "अपार्टमेंट कल्चर" से जुड़ने के बाद छत की जगह बालकनी 
ने ले ली और घूमने की जगह बिल्डिंग के "पाथ-वे" ने । मार्च की शुरुआत में एक दिन आदतानुसार घूमने जा रही थी तो उसने कहा - "मत जाओ ! जब तक महामारी पर नियन्त्रण ना हो । बीमार लोगों को अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है ..तुम्हारे लिए हम भी अपने लिए अतिरिक्त सावधानी बरतेंगे क्योंकि हमें तुम्हारी जरुरत है ।" उसकी आधी नींद भरी आँखों में अपने लिये चिन्ता देख घूमने का विचार छोड़ दिया और वापस मुड़ गई अपने कमरे की ओर…पर्दे खींचते हुए नीचे की तरफ देखा.. लोग घूम रहे थे । मुझे लगा मेरी जिन्दगी थम सी गई है । हफ्ते भर बाद लॉकडाउन की घोषणा और दिन पर दिन कोरोना
के पूरे विश्व में बढ़ते प्रकोप के बारे में जान कर लगने लगा मेरी नहीं सबकी जिन्दगी थम सी गई  है ।             
  परिवार के सदस्यों से मिलने अक्सर मुम्बई जाना
होता है ...वहाँ कई बार सुना है - "मुम्बई की रफ्तार धीमी नहीं होती कभी ।"  सोचती हूँ थम गई है शहरों की रफ्तार और मुम्बई की भी । लम्बी-चौड़ी सड़कें सूनी ही दिखती हैं न्यूज़ चैनल्स में । बस... खाली और उद्विग्न मन दौड़ता रहता है थमी हुई जिन्दगी में । हर दिन न्यूज देखते या नेट पर पढ़ते हुए एक उम्मीद दामन कस कर थामे रहती 
है -  
कुछ ठीक हुआ.. कोई दवा सफल हुई..और फिर वही उम्मीद दिलासा देती है--कोई बात नहीं जो आज थमा है वो कल फिर से चलेगा और दौड़ेगा भी ...बस दिल की धड़कनें चलती रहनी चाहिए ।
और धड़कनों के चलते रहने के लिए एहतियात बरतना बहुत जरूरी है ।

                                            ***