सहज कहाँ है
इसको साधना
देख कर भी
करना पड़ता है अनदेखा
सहने पड़ते हैं
विष बुझे तीर..
गरल सा
पीना पड़ता है
न चाहते हुए भी
अपमान का घूंट
कभी कभी विवेक
दे कर..,
स्वाभिमान का ताना
फूटना चाहता है
आक्रोश बन लावे सा
तब..
बुद्धि समझदारी की
चादर ओढ़ कर
बन जाती है माँ…
लोरी सी थपकी
के साथ
अन्तस् में उठता
एक ही भाव….
बड़ी दुर्लभ है यह
किलो या ग्राम में
कहाँ मिलती है
दुनिया के बाजारों में
कितनी ही ..
आत्म-पराजयों के बाद
खुद की जय से
सधती है खामोशी ….
★★★