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शनिवार, 30 जुलाई 2022

“तुम्हारे बिना”




तुम्हारे बिना भी

बेफ़िक्री में गुजर ही रही थी 

जिन्दगी..,

अपने होने का अर्थ 

तुम से ही तो सीखा है 


तुम्हें पाकर कैसे व्यक्त करूँ 

समझ में आया ही नहीं 

खुद को अभिव्यक्त करना

 मेरे बस में कभी था ही नहीं

जिस राह चलना छोड़ा 

बस छोड़ दिया 


इस से पहले कि मैं 

सब कुछ भूल - भाल जाऊँ 

भागती-दौड़ती भीड़ में

भीड़ का हिस्सा बन खो जाऊँ 

बिना लाग लपेट के

बस चंद शब्दों में ..,

इतना ही कहना है कि,

तुम्हें किसी को सौंपने के बाद 

यह शहर मेरे लिए 

अजनबी अजनबी 

और ..,

ख़ाली खा़ली हो गया है 


***


मंगलवार, 26 जुलाई 2022

“क्षणिकाएँ”



न जाने किस मूड में

 आज मांग लिए तुमने

 मुझ से अपने हक

और मैंने भी…

भरी है तुम्हारी अंजुरी 

नेहसिक्त शुभेच्छाओं से

संभाल कर रखना..,

जीवन भर काम आएँगी 

🍁


बड़ी शिद्दत से कई बार 

दस्तक दी  होगी मैंने

तुम्हारे दिल के दरवाज़े पर…,

तब तुम्हारे पास फ़ुर्सत नहीं थी

और अब…,

मुझे भूलने की 

आदत पड़ गई है 

🍁


सावन - भादौ से

 पहले ही डूब जाते हैं 

पानी में खेत-खलिहान

लोगों की तरह.., 

धरती और बादलों की 

सहनशक्ति भी अब

 चुकी हुई सी लगती है 


🍁












सोमवार, 18 जुलाई 2022

“मैं”




मैंने तुमको समझा इतना

गागर के पानी के जितना

इन्द्र धनुष के सात रंग से

ले कर एक अपना सा रंग


अपनी चादर बुन लेती हूँ 

खुद की धुन में जी लेती हूँ 


सागर लहरों की हलचल में

बूँदों की रिमझिम सरगम में

घन बीच गरजती बिजली में

अपने मनचाहे की ख़ातिर 


मैं नीरवता सुन लेती हूँ 

अपने मन की कर लेती हूँ 


माया के बंधन में उलझा

घनघोर तमस में दीपक सा 

नश्वरता बीच अमरता सा

सुखद सलोना क्षणभंगुर 


 कुछ अनचीन्हा चुन लेती हूँ 

अनमोल भाव गुन लेती हूँ 


***



बुधवार, 13 जुलाई 2022

“त्रिवेणी”



दिन थक गया चलते चलते और अब तो

सूरज की तपिश भी बुझ सी गई है …,


आओ ! हम भी सामान समेट लें ।


🍁


हवाएँ चिंघाड़ कर धकेलती रही टफण्ड ग्लास

और वह भी टिका रहा स्थितप्रज्ञ सा…,


जीने का सलीका कभी-कभी यूँ भी दिखता है ।


🍁


 बेज़ुबान अनगढ़ पत्थरो के बीच से

 बह निकला कल-कल करता जल स्त्रोत..,


वक़्त के साथ ख़ामोशी भी बोलना सीख जाती है  ।


🍁


बुधवार, 6 जुलाई 2022

“पोर्ट्रेट”



भँवर अनेकों किये समाहित 

कितना शांत समन्दर

नीर गगरिया बादल भरता

झुका हुआ है तल पर


थाली जैसा दिखता चन्दा

झूल रहा शाख़ों पर

कानों में सीटी सी बजती

चले पवन सनन सनन


पवन झकोरों के संग देखो

टूटे शाख से पल्लव 

दर्द उठा तरुवर के मन में

उठती नज़र हुई नम


बौराया बादल का टुकड़ा 

उड़ा पानी से भर कर

टकराया उतुंग शिखा से

बिखरा बूँदें बन कर


स्मृति मंजूषा में रखे हैं

माणिक मुक्ता भर कर

मोती जैसे पल सिमटे हैं 

मन की सीप के अन्दर


 ***