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गुरुवार, 25 जनवरी 2018

"26 जनवरी” (गणतन्त्र दिवस)

हर्षोल्लास में डूबे स्वर……,आज से ग्राउण्ड में जाना है “26 जनवरी" की तैयारी के लिए‎ । और फिर वह चिरप्रतीक्षित दिन….., मुँह अंधेरे अपनी अपनी स्कूलों की तरफ लकदक करती यूनिफॉर्म पहने भागते बच्चे……,रंग-बिरंगे परिधानों से सजे लोगों की भीड़ से भरी गलियां । सभी का एक ही लक्ष्य ….,  समय रहते उस बड़े से ग्राउण्ड में एकत्र होना जहाँ गणतन्त्र दिवस के आयोजन को सम्पन्न‎ होना है।
                   लाउडस्पीकरों पर पुरानी फिल्मों के देशभक्ति गीत ---- (1)  मेरे देश की धरती………,
(2) अब कोई गुलशन न उजड़े अब वतन …………,
(3)   ए मेरे वतन के लोगों‎…………., ओस भरी सर्दियों में जोश और ओज बढ़ा कर रक्त‎ संचार‎ तीव्र कर देते थे । जब से होश संभाला इस राष्ट्रीय पर्व को इसी जोश और जुनून से जीया । एक ही ग्राउण्ड पर पहले एक छात्रा के रूप में और फिर एक माँ  के रुप में मनाने के गर्व की तो बात ही क्या, बैण्ड की मधुर स्वर लहरियों पर ध्वजारोहण पर बजता राष्ट्रगान, परेड करते स्कूली बच्चे और विभिन्न कार्य‎क्रम ..,
उत्सव के समापन के साथ सब छवियां आँखों‎ में भर कर जाती भीड़ अगले वर्ष की सर्दियों तक मानों प्रतीक्षा‎रत ही रहती ।
                            एक पीढ़ी का ही अन्तराल आया है ना जाने क्यों शिक्षा के उर्ध्वमुखी समाज में जीते हम लोग कई बार स्वतन्त्रता‎ दिवस और गणतन्त्र दिवस में भेद करना भूल‎ जाते हैं‎ ।  पन्द्रह‎ बीस वर्ष पूर्व  क्या‎ बच्चे और क्या बड़े ? साक्षर हो या निरक्षर हर व्यक्ति‎ को जुबानी याद था------
स्वतन्त्रता दिवस ----”देश को आजादी मिली थी इस दिन, अंग्रेज भारत छोड़ कर अपने देश चले गये थे ।”
गणतन्त्र दिवस------”ये भी नही पता…..,इस दिन हमारे देश का संविधान लागू हुआ था ।”
और  संविधान ?
संविधान------”लिखित और अलिखित परम्परा‎ओं और कानूनों का वह संकलन, जिससे किसी भी देश का राज-काज (शासन) चलता हो ।”
                         हम  हमारा 69 वां गणतन्त्र मना रहे हैं बड़े हर्ष और गर्व का विषय है यह हमारे लिए‎ , मगर  एक सवाल‎ उठता है मन में कि क्या अब भी पुराने लोगों की तरह जोश और जुनून के साथ हमारे नौनिहालों में हमारे राष्ट्रीय पर्वो के लिए‎  जिज्ञासा का भाव है ? अगर नही में उत्तर मिलता है तो कारण खोजने के साथ समस्या का समाधान‎ खोजने का दायित्व भी हम सब का है ।

(  सभी साथियों‎ को गणतन्त्र दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभ‎कामनाएँ  )
जय हिन्द !!!  जय भारत !!!
  

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बुधवार, 24 जनवरी 2018

"आदत"

आदत सी हो गई‎ है
अपने में‎ खो जाने की ।
खुद से मनमानी करने की
फिर अपने को समझाने की ।

कल्पनाओं के कैनवास पर
कल्पित लैण्ड स्केप सजाने की ।
सोचों की भँवर में उलझी हुई
अनसुलझी गिरहें सुलझाने की ।

बेमतलब तुम से बातें कर
बेवजह जी जलाने की ।
टूटे दिल के जख्मों पर
खुद ही मरहम लगाने की ।

आदत सी हो गई‎ है
जागती आँखों‎ ख्वाब देखने की ।
और फिर जिद्द सी हो गई‎ है
देखे ख्वाब  पूरा करने की ।

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सोमवार, 15 जनवरी 2018

"वो"(3)

(भाग तृतीय)

मौहले भर में प्रसिद्ध था कि बरजी काकी चूंकि बचपन में ही ससुराल आ गई  और घर में सबकी दुलारी थी इसलिए स्वभाव में स्त्रीगत गुणों का अभाव व पुरुषोचित गुणों का बाहुल्य था। दिखने में शान्त तथा गंभीर स्वभाव की लगती थी अन्य महिलाओं की तरह उस को चकल्लस जमाने की आदत नही थी पर ऐसा भी नही कि जागरुकता का अभाव हो यदि कोई कुछ कह दे तो सामने वाले को चुप करने की कला में भी माहिर थी। मौहल्ले भर की औरतें उससे उसके दंबग स्वभाव के कारण कुछ दूरी बना कर ही चलती थी। एक दिन दीया बैठी पढ़ रही थी कि माँ ने आ कर कहा -”बरजी के यहाँ से मटके ले आओ दोनों बहने , वो देकर जाएगी तो कच्चा-पक्का पटक जाएगी फिर बदलवाने का झंझट रहेगा।”   दीया ने हैरानी से माँ की ओर देखा , वे अक्सर ऐसे काम खुद ही कर लेती हैं उसको असमंजस में देख कर बोली - “तबियत ठीक नही लग रही , नही ले आती खुद ही ।” मुक्ता तो जैसे तैयार बैठी थी ,किताब आगे से हटाते हूए बोली -”चलो दीदी।”
                     उस दिन पहली बार दीया ने घर के नाम पर काकी का पूरा साम्राज्य देखा - लम्बा-चौड़ा आंगन , आंगन के बीच बड़ा सा नीम का पेड़ ,कई जगह चिकनी मिट्टी के ढेर , एक गड्ढे में भीगी गीली मिट्टी गीले कपड़े से ढकी , पास ही बर्तन बनाने वाला चाक , कोने में एक बैठकनुमा कमरा , लम्बी कतार में पाँच कमरे और छत पर करीने से लगाई  मटकों की कतार आंगन से भी साफ दिखाई दे रही थी ,घर के कोने में बड़ा सा आवा जिस में मिट्टी के बर्तन पकते थे। कई बार  उसका उठता धुँआ घर तक पहुँचता था। विस्फारित नजरों से यहाँ-वहाँ देखती बहनों को आवाज सुनाई दी  - “अन्दर आ जाओ ! जेठानीजी बोली थीं लड़कियों को भेजती हूँ।”
                            बड़े प्यार से उसने दो मटके निकाल कर दिए , कच्चे -पक्के की जाँच के लिए अँगुली से बजा कर दिखाया। सोच तो बहुत कुछ वह भी रही थी पर मुक्ता कहाँ चुप रह सकती थी -” काकी पक्की व्यापारी है , एक मटका पन्द्रह रुपए और बड़ा पच्चीस और  सुराही .....।"   दीया ने जोर से बहन का हाथ पकड़ कर खींचा चुप कराने के लिए। " ना बेटा…..,मुँहफट है पर मन की साफ है तेरी बहन।" ब्याह हो कर जाओगी तब समझोगी घर चलाना , बच्चे पालना और आजकल तो मरी पढ़ाई-लिखाई भी महंगी होती जा रही है , फिर उनका शादी-ब्याह करना। रिश्तेदारी और परिवार में हजार खर्चे , कभी किसी का भात तो कभी बच्चा होने पर दस्तूर और हारी -बीमारी हो तो……, जी के  जंजाल बने रहते हैं खर्चे । साल के कुछ‎ महिने खाली भी निकलते हैं।   तुम्हारी तरह पढ़े-लिखे तो नही है हम पर इतना पता है कि जीने के लिए रुपए-पैसे की जरुरत हर इन्सान को होती है और पैसा कमाने के लिए काम करना ही पड़ता है। अभी ये बातें नही समझ पाओगी लेकिन ब्याह हो जाएगा उस दिन गृहस्थी के झंझट समझ जाओगी।"
                       उसकी बातें सुनकर दीया हैरान और हतप्रभ थी कि अर्थशास्त्र के आरम्भिक सिद्धान्त कितनी आसानी से समझा दिए काकी ने साथ ही घर-गृहस्थी चलाने की कुशल सीख भी दे दी। मटके हाथों में थामें दोनों घर की तरफ जा रही थी तो मौन तोड़ते हुए मुक्ता ने पूछा - क्या सोच रही हो दीदी ? तुम्हारी नूरजहाँ के बारे में , मुस्कुराते हुए दीया ने जवाब दिया ।
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(समाप्त)

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

"वो" (2)

  (द्वितीय भाग)

आजकल लड़कियों के उत्थान और शिक्षा-दीक्षा के प्रचलन पर बड़ा जोर है ,साक्षरता का प्रतिशत भी उर्ध्वमुखी हो गया है लेकिन चालीस-पचास साल पहले हालात कुछ और ही हुआ करते थे। लड़कियों को शिक्षा के नाम पर गृहकार्य में निपुण होना अनिवार्य था , छोटी उम्र में विवाह होने के कारण उनकी प्रवेशिका शिक्षा पिता के घर और शेष जीवन पर्यन्त पति के घर सम्पन्न होती थी। बरजी काकी का ब्याह सात वर्ष की उम्र में दस वर्ष के रामकुमार से हो गया था। कहते हैं सात साल की बहू को गोद में उठा कर आंगन में नाची थी उसकी सास। दो दिन बाद बहू को विदा कर दिया क्योंकि गौना तभी होना था जब लड़की समझदार हो जाए और समझदारी की उम्र तेरह या चौदह वर्ष होती थी। काकी की विदाई के बाद घर के काम-धन्धे पुराने ढर्रे पर चल पड़े। रामकुमार काका को घर की बड़ी जिम्मेदारियाँ  सौंपी जाने लगी जैसे मिट्टी के बर्तन बनाने में सहायक का काम , उन्हें बेचने का काम और पारिवारिक उत्सवों में शामिल होने का काम। साल भर में काका कुछ  ज्यादा ही समझदार हो गए। एक दिन आंगन में कपड़ों की गठरी के साथ घूंघट में लिपटी पत्नि को लाकर खड़ा कर दिया और घोषणा कर दी अब यह यही रहेगी।
           हुआ यूं कि काका किसी बारात में गए थे लेकिन वे बारात में न जाकर ससुराल जा पहुँचे कि पत्नि को विदा कर दो घर में माँ बीमार है। आनन-फानन लड़की को तैयार कर घरवालों ने साथ चलने की तैयारी की तो मना कर दिया कि पास ही गाँव में रिश्तेदारी मे आए हैं घण्टे भर का रास्ता है चले जाएँगे। घर आकर माँ के सामने अपने मन की बात रखी कि अब यह यही रहेगी मेरे साथ। माँ-बाप ने सिर पीट लिया बहुतेरा समझाया मगर बेटे की जिद्द के आगे सारे प्रयास विफल हो गए। सुना है तब से अब तक काकी यही है कभी-कभार मायके जाती है , पाँच बच्चों की माँ है। सास सदा बरजी-बरजी आवाजें देती थीं इसलिए सभी को रिश्ते के नाम से पहले सम्बोधन में बरजी नाम जोड़ने की आदत पड़ गई। घर की कमाई का हिसाब , घर चलाने की जिम्मेदारी , बच्चों की परवरिश सब उसी के जिम्मे है सास-श्वसुर के देहावसान के बाद घर की सत्ता की पूर्ण स्वामिनी वही है। रामकुमार काका को काकी के हाथ का बना खाना और शाम को शराब की बोतल चाहिए बाकी दुनियादारी से उन्हे कोई लेना-देना नही , उनकी कर्म- स्थली मिट्टी के बर्तन बनाने वाली दो गज जमीन और चाक है।
                                बात पूरी होते ही मुक्ता ने दार्शनिक भाव से कहा- “कौन कहता है नूरजहाँ एक ही थी , यहाँ भी उसका दूसरा अवतार है बरजी काकी।" और अपनी जिज्ञासा शान्त कर करवट बदल कर सो गई मगर दीया के हाथ सोचने का नया सूत्र थमा दिया कि महिला सशक्तीकरण की अक्सर बातें चलती है , बहुत शोर मचता है , कभी शिक्षा की बात चलती है तो कभी विशेष अधिकारों की मगर स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली ही रहती है। दीया का मानना था कि उसे विकसित होने की अनुकूल परिस्थितियाँ मिले तो वह अपनी कुशलता की छाप हर युग में छोड़ती आई है।
                        सर्दियों में दिन बड़े जल्दी ढल जाते हैं शाम कब हुई और रात कब शुरु पता कम ही चल पाता है। एक दिन मुक्ता और दीया खाना बना रही थी और माँ आंगन में किसी काम में लगी थी कि अचानक गली में शोरगुल हुआ । माँ देखने गईं थोड़ी देर में चचेरा भाई और वे हँसते हुए अन्दर आ रहे थे , दीया ने पूछा  - क्या हुआ ? कुछ नही …., कह कर दोनों वहाँ से हट गए लेकिन घर के चलते-फिरते समाचार पत्र मुक्ता के रहते कोई बात गुप्त कैसे रह सकती थी। दूसरे दिन कॉलेज से आते ही दीदी का हाथ पकड़ कर खींचती हुई छत पर ले गई। और उतावलेपन से बोली - “कल क्या हुआ था पता है ? बरजी काकी शराब की दुकान पर पहुँच गई रिक्शा लेकर।वहाँ बैठे लोगों और दुकानवाले को खूब खरी-खोटी सुनाई और अपने घरवाले को रिक्शे में पटक कर घर ले आई। "कड़क और धांसू औरत है ना ?" आँखें झपकाते हुए उसने बात समाप्त की । इतने में ही माँ ने किसी काम के लिए आवाज दी तो दोनों बहनें  भागती हुई नीचे उतर आईं और  बरजी काकी का शौर्य गान वही थम गया ।

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(अगले अंक में समाप्त‎) 
             


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बुधवार, 10 जनवरी 2018

"वो" (1)

(प्रथम भाग)

वो हरे ,नीले कपड़ों के थान खुलवाए अपनी दो अंगुलियों की पोरों के बीच घूंघट थामे पारखी नजरों से कपड़े की किस्म भांप रही थी । बड़ी देर बाद उसने हरे रंग का कपड़ा पसन्द किया अब बारी ओढ़नी की थी , किसी का बांधनी का काम सफाई से नही तो किसी कपड़े में आब नही । कपड़े दिखाने वाला झुंझलाया  हुआ था मीन-मेख से , दुकानदार बही-खातो से नजर उठाकर दूसरा माल दिखाने का आदेश  दे रहा था ।एक तरफ अपनी बारी की प्रतीक्षा करती मुक्ता और दीया बड़ी देर से सारा क्रिया-कलाप देखती हुई ऊब के मारे बैठी सोच रही थी कि उठ जाए या अपनी बारी की प्रतीक्षा करे , पूरे कस्बे में यही तो एक दुकान है जिस पर वाजिब दामों में सही कपड़ा मिलता है ।
       “मुक्ता अपने काका का नाम तो बता।” दुकानदार नाक पर चश्मा ठीक करते हुए उन्हीं की ओर देख रहा था। मुक्ता ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया-” बरजा काका”। घूंघट में लिपटी औरत ने झल्लाहट से सिर झटका और दीया को इशारा किया नाम बताने के लिए , हड़बड़ाई दीया ने नाम बोला -”बरजा राम।” नाम सुनते ही दुकानदार के होठो के कोनों पर स्मित सी रेखा उभरी और बोला -”जजमान का नाम आप ही बता दो , लड़कियाँ तो फेल हो गई।” तब तक दीया संभल गई और काकी के गुस्से पर पानी के छींटें डालते हुए भूल सुधारते हुए कहा -”रामकुमार नाम है जी काका का।”
                                दुकान में बैठी औरत दीया और मुक्ता के घर से कुछ फासले की दूरी पर रहती थी । पूरे कस्बे में उसी के घर से बने मिट्टी के बर्तन जाते थे और पड़ौस में उसका घर उसी के नाम से ही जाना जाता था उस की प्रसिद्धि के आगे काका का  नाम गौण ही था। दोनों बहनें दुकान की सीढ़ियों से उतरती हुई खुलकर हँस दी। राह चलते मुक्ता ने पूछा -”दीदी वैसे सभी क्यों उसका ही नाम बुलाते है काका का नाम तो छुपा ही रहता है अपनी घरवाली के नाम के पीछे।” सुमि बता रही थी वो सात साल की ब्याह कर आ गई थी शादी की उम्र तो अट्ठारह वर्ष होती है कम से कम। दीया तो जैसे मुक्ता का इनसाईक्लोपीडिया या गूगल डॉट.कॉम. थी , बटन दबाओ-जानकारी हाजिर। उस वक्त पीछा छुड़ाते हुए दीया ने कहा -”चुपचाप सीधी चल ,बातें करती चलेगी तो कोई टक्कर मारता हुआ निकल जाएगा हो जाएगी यहीं जिज्ञासा पूरी।”
               मगर मुक्ता कहाँ पीछा छोड़ने वाली थी , छोटी होने के नाते उसका यह अधिकार था कि वह अपने मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर अपनी बहन कम सहेली से जाने। यूं भी बाजार वाली घटना घर पर आकर बताई तो घर में हँसी के फव्वारे फूट पड़े थे मुक्ता अपने ऊपर हँसना सहन नही कर पाती थी इसलिए रात में सोने से पहले अपनी आदत के विपरीत गंभीरता से बोली - “अब बताओ ना दीदी ।” दीया ने माँ और परिवार के और सदस्यों से कभी कुछ सुना था वह बालमन के आपसी आकर्षण की कहानी थी।
                           
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(शेष अगले अंक में)

सोमवार, 1 जनवरी 2018

"समय"

और एक आज             
कल में बीत गया ।
और एक साल
गत में बदल गया ।
जो आज है
उसकी नींव ।
जो कल था
उस पर टिकी है ।
और जो आएगा
उसकी आज पर ।
दिन , महिने , साल
यूं ही गुजरते हैं ।
एक दूसरे से बँधे
एक दूसरे के साझी ।
समय रूकता कहाँ हैं ?
बस चलता है
अनवरत , अविराम ।
एक हम ही हैं
जिसने समय की भी ।
बना दी हैं सीमाएँ
अपने मतानुसार ।

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