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गुरुवार, 28 जून 2018

।। मुक्तक ।।

आप अपने मन की सुना कीजिए ।
और सच के मोती चुना कीजिए ।।
क्यों उलझते हैं तेरे मेरे के फेर में ।
बहते दरिया की तरह से बहा कीजिए

हम.मिलते तो कभी कभी हैं ।
मगर लगता दिल से यही है ।।
साथ है हमारा कई जन्मों से ।
सच है ये कोई दिल्लगी नही है ।।

जीने का शऊर आ गया तेरे बिन
तूने भी.सीख लिया जीना  मेरे बिन
जरूरी है आनी दुनियादारी भी
जिन्दगी काटनी मुश्किल इस के बिन

गिरना संभलना , संभल कर चलना
रोज नये हुनर सिखाती जिन्दगी ।
नित नई भूलों से , नित नये  पाठ
समय के साथ सिखाती जिन्दगी ।।
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सोमवार, 25 जून 2018

"हम भी काम कर लेते हैं'

चलिये आज हम भी कुछ काम कर लेते हैं ।
खाली  वक्त भरने.का इन्तजाम कर लेते हैं ।।

बन जाइए आप भी रौनक- ए- महफिल ।
हुजूर में आपके सलाम कर लेते हैं ।।

चैन-ओ-सुकूं से  यहाँ कोई जीये कैसे ।
नजरों से भी लोग कत्लेआम कर लेते हैं ।।

गैरों को भी कई बार अपना समझ लेते हैं हम ।
नादानियों में अपना किस्सा तमाम कर लेते हैं ।।

वक्त की नजाकत समझने में लगती है देर ।
सांसें  भी आपकी वे अपने नाम कर लेते हैं ।।

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बुधवार, 20 जून 2018

एक दिन” (हाइकु)

खिल जाते हैं
कमलिनी के फूल
भोर के साथ

अपने आप
सिमटी पंखुडियां
सांझ के साथ

रंग बिरंगी
मीन क्रीड़ा करतीं
लगती भली

ताल किनारे
गुजरे कुछ पल
सांझ सकारे

विश्रांति पल
कुदरत के संग
देते उमंग


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बुधवार, 13 जून 2018

।। मुक्तक ।।

                       (1)

कुछ तुम कहो कुछ मैं कहूँ , बाकी सब बातें जाओ भूल ।
बेकार की है दुनियादारी , नही होते इस से कुछ दुख दूर ।।
औरों की बात करो मत तुम , सब अपनी अपनी करते हैं ।
इस देखा देखी के चक्की में , बस हम जैसे ही पिसते हैं ।।

                          (2)

कल तक जो थे मेरे अपने , अब बेगानों सी बातें करते हैं ।
अपना अपना हम करते हैं , ये अपने ही छल करते हैं ।।
मुठ्ठी में बंद मखमली ख्वाब , तितलियों की तरह मचलते हैं ।।
पा कर खुद को आवरण बद्ध , मुक्ति के लिए तरसते हैं ।।

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शुक्रवार, 8 जून 2018

" सांझा - चूल्हा"

सब को लेकर साथ चलना
सब के मन की बात पढ़ना
आसान नहीं कठिन सा है ।
बेसब्री और केवल मेरी 'मैं’
औरों के सिर पर पांव रख कर
केवल अपना भला सोचती है ।
कभी - कभी सोचती हूं
जगह -जगह सांझा - चूल्हा
रेस्टोरेंट्स तो खुल गये हैं ।
कहीं सांझा -चूल्हा संकल्पना भी बाकी है
जहां रोटियों के साथ नोंक झोंक
और स्नेह - प्यार भी पकता है ।
सांझे - चूल्हे में रोटियां सेंकने को
इन्तजार करना पड़ता है
अपनी अपनी बारी का ।
गावों की मेहनत कश
औरतें निबाहती है फर्ज
अपनी साझेदारी का ।
सह अस्तित्व का भाव
हो तो सब काम
अपने आप सधते हैं ।
और एक दूसरे के
सुख-दुख  आपस में
मिल जुल कर बंटते हैं ।

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मंगलवार, 5 जून 2018

"मुलाकात"

हम तो मिलने के बहाने आ गए ।
दोस्ती को आजमाने आ गए ।।

मिलने का वादा था चांद रात का ।
वो वादा  तुम से निभाने आ  गए ।।

चांद के दीदार का बहाना बना।
दोस्ती का कर्ज चुकाने आ गए ।।

सीढ़ियों पर भाग कर आते कदम ।
बीते दिन फिर से दिखाने आ गए ।।

मैं कहूं कुछ या तुम मुझ से कहो ।
याद हम को  दिन पुराने आ गए ।।

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शुक्रवार, 1 जून 2018

"एक दिन पहाड़ों वाला"



पहाड़ों के ठाट भी बड़े निराले हैं
मरकत और सब्ज रंगों से सजे
अपनी ही धुन में मगन ।
कुदरत ने भी दोनों हाथों सेे
नेह की गागर इन पर
बड़े मन से छलकी है ।
सांझ होते ही बादलों की
टोलियां इनकी ऊंची चोटियों पर
अपना डेरा डाल देती हैं ।
रात के आंगन में जुगनूओं की चमक
और दूर वादी में ढोल की थपक
फिजाओं में संगीत घोलती है ।
भोर के उजाले में
पूरी की पूरी कायनात
स्वर्णिम आभा से नहा उठती है ।
बातों के पीर तरह तरह के पंछी
अपनी गठरियों से किस्से  कहानी
सुनाते दिन भर चहकते हैं ।
और सारा दिन यूं ही चंचल  हिरण सा
कभी इस घाट तो कभी  उस घाट
कुलांचे भरता आंखों से ओझल हो जाता है।

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