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सोमवार, 3 जुलाई 2023

“शहर”


अर्वाचीन की गोद में

प्राचीन सजाये बैठा है 

मेरा शहर अपने भीतर

एक गाँव बसाये बैठा है


पौ फटने से पहले ही 

शुरू हो जाती है 

 परिंदों  की सुगबुगाह

पहले बच्चों से लगावट

फिर सतर्कता भरी हिदायत 

 

 घनी शाख़ों के बीच छिपी 

 सुर-सम्राज्ञी जैसे ही

 करती है आह्वान 

निकल पड़ते हैं सारे के सारे 

झुण्डों में…

लेकर नवउर्जित प्राण


अधमुंदी सी मेरी आँखों पर  

जैसे कोई शीतल जल 

छिड़कता है 

इस शहर के सीने में 

दिल नहीं एक सीधा-सादा 

गाँव धड़कता है 


***