सूरज की सोहबत में
लहरों के साथ दिन भर
गरजता उफनता रहा
समुद्र ..
साँझ तक थका-मांदा
जलते अंगार सा वह जब
जाने को हुआ अपने घर
तो..
बिछोह की कल्पना मात्र से ही
बुझी राख सा धूसर
हो गया सारे दरिया का
पानी …
चलते -चलते मंद स्मित के साथ
सूरज ने स्नेहिल सी सरगोशी की
बस..
रात , रात की ही तो बात है
मैं फिर आऊँगा
माणिक सी मंजूषा में कई रंग लिए
कल..
हम फिर से निबाहेंगे वही
अनादि काल से चली आ रही
परिपाटी ।
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