अक्सर पढ़ती हूँ तीज-त्यौहारों के संबन्धित विषयों
के बारे में..अच्छा लगता है भिन्न- भिन्न प्रान्तों के
रीति-रिवाजों के बारे में जानना । इन्द्रधनुषी सांस्कृतिक विरासत है हमारी ..संस्कृति की यही तो खूबी है कि
वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है । निरन्तरता में नव-पुरातन
घुल-मिल जाता है मिश्री और पानी की तरह मगर
उसका मूल नष्ट नही होता । इसी संस्कृति से हमारे
आचार विचार पोषित होते हैं । मगर मन खट्टा हो
जाता है जब इस तरह के क्रिया - कलापों की
आलोचनाएँ पढ़ती हूँ । नारी का साज-श्रृंगार
उसकी सुन्दरता के साथ साथ उसकी सम्पन्नता का
प्रतीक है । यही नहीं प्राचीनकाल का इतिहास यदि
चित्रों के माध्यम से समझने और देखने का प्रयास
करें तो पुरूष वर्ग भी महिला वर्ग के समान आभूषणों
से सजा दिखाई देता है ।
बाहरी आक्रमणकारियों के आने के बाद 'सोने की चिड़िया' हमारे देश की स्वर्णिम व्यवस्था चरमराई और
फिर रही सही कमी ब्रिटिशसरस् ने पूरी कर दी ।
आधुनिकता के नाम पर पायल , कंगन और अन्य वस्त्राभूषण को गुलामी या परतंत्रता का प्रतीक मानना ,
व्रत- पूजा पाठ को दकियानूसी विचार मानना मुझे तो किसी भी नजरिए से तर्क संगत नजर नहीं आता । केवल विरोध करना है तो करना है यह एक अलग पहलू है ।
आज की अधिकांश महिलाएं शिक्षित और परिपक्व सोच रखती हैं यह उनके स्वविवेक पर निर्भर करता है कि
उन्हें क्या करना है ।
व्रत , उपासना , पूजा-अर्चना करना या ना करना उनकी व्यक्तिगत भावना और आध्यात्म से जुड़ाव की भावना है । रीति-रिवाजों के लिए जबरन विचार थोपे जाएँ तो यह अवश्य गलत होगा और इस तरह की बातों का विरोध भी पुरजोर होना चाहिए मगर स्वेच्छा से किये गए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यों की आलोचना अनुचित है । हमारे विचार किसी दूसरे के विचारों से मेल खायें या नहीं खायें
यह अलग विषय है लेकिन हमें दूसरों के विचारों का सम्मान अवश्य करना चाहिए ।
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