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रविवार, 26 दिसंबर 2021

"मेरे साथ चलोगी"

रोज ही मिलती थी

 वह...

बोरे सा कंधे पर डाले

स्कूल वाला बैग

एक अबूझ प्रतीक्षा में रत

जैसे अनजान डोर बंधी हो 

हमारे दरमियान...

मुझे देखते ही 

उसकी दंत पंक्ति चांदनी फूल सी 

खिल जाती और हम दोनों 

साथ-साथ

चल पड़ती अलग-अलग

गंतव्य की ओर...

एक दिन राह में

अपनी मुठ्ठी से उसने 

भर दी मेरी मुठ्ठी

देखा तो ...

सुर्ख बेर थे मेरी अंजुरी में

खट्टे -मीठे और रसीले

पहली बार

 मौन का अनावरण-

“हमारे खेत के हैं 

अब की बार खूब लगे हैं”

-”मेरे साथ चलोगी”

व्यवहारिकता की व्यस्तता में

उसने मुझे कब छोड़ा

और मैंने उसे कब 

याद नहीं…

मगर शरद में जब भी देखती हूँ

 लाल,पीले,हरे बेरों की ढेरियां

वह…

मेरी स्मृतियों के कपाट

खटखटा कर 

खड़ी हो जाती हैं मेरे सामने

और पूछती है-

“मेरे साथ चलोगी”

 ***


[चित्र:- गूगल से साभार ]





 



मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

"अदृश्य डोर"


गुलेरी जी की तरह-

"उसने भी कहा था"

यूं ही रहना ,

एक अदृश्य डोर में बंधे 

अच्छे लगते हो ।

डोर के हिलते ही ,

प्राणों का स्पदंन

यूं झलकता है ..,

जैसे ठहरे पानी के ताल में

कंकड़ी फेंकने से ,

 लहरें उठीं हों ।

मगर अब …,

समय बदल गया है ,

डोर के तन्तु

जीर्ण-शीर्ण से दिखते हैं ।

और ठहरे पानी में भी

कंकड़ फेंकने की गुंजाइशें, 

समापन के कगार पर हैं ।

क्योंकि वहाँ भी अब

ईंट-पत्थरों के ,

जंगल उगने लगे हैं।


*** 

[ चित्र:- गूगल से साभार ]


सोमवार, 6 दिसंबर 2021

"भाव सरिता"


कल कल बहते भावों को ,

शब्दों की माला में बांधूं ।

झील सतह पर हंस का जोड़ा ,

सैकत तीर शिकारा बांधूं ।।


ऊषा रश्मियाँ लेकर आती ,

पूर्व दिशा से सुन्दर सूरज ।

स्वागत में खग कलरव करते ,

ठगी ठगी सी लागे कुदरत।।

मंजुल मुकुर प्रत्युष मनोहर ,

कैसे मैं शब्दों में बांधूं ।।

झील सतह पर हंस का जोड़ा ,

सैकत तीर शिकारा बांधूं ।।


आम्रबौर की मादक सुरभि ,

मदिर मदिर चलती  पुरवैया ।

रुनझुन बजे गले  की घंटी ,

बछड़े संग खेलती गैया ।।

वसुधा के असीम सुख को ,

कौन छन्द उपमा में बांधूं  ।

झील सतह पर हंस का जोड़ा ,

सैकत तीर शिकारा बांधूं ।।


अविरल बहती धारा के संग ,

मन की गागर छलकी जाए ।

कौन साज सजे जीवन सुर ,

व्याकुल मनवा समझ न पाए ।।

पंचभूत की नश्वरता को ,

 विस्मृति के धागों से बांधूं ।।

झील सतह पर हंस का जोड़ा ,

सैकत तीर शिकारा बांधूं ।।


**

गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

"मौसम"

                  

मेघों में छुपकर सोया है सूरज ,

या घन ने उसको ढका हुआ ।

भोर भी अब सांझ जैसी ,

भ्रम दृग पटल पर, पड़ा हुआ ।


चलने लगी सीली हवाएं ,

दिशाएं सभी गीली सी हुईं  ।

बदला बदला सा सृष्टि आंगन ,

न जाने कैसी बात हुई ।

भीगे हुए हैं पुष्प दल सारे .

अलि पुंज भी सुप्त सा लग रहा ।


बदली हुई मनःस्थितियों में ,

बेमौसम की बरसात हुई ।

जीवमात्र ठिठुरे हैं सारे ,

कब दिन हुआ कब रात हुई

रुख बदल दो  तुम्ही ऐ हवाओं !

मन तपस को तरस रहा ।।


***