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मंगलवार, 25 जुलाई 2017

“मोह”

       
पुरातन का मोह बड़ा गहरा है मेरे लिए । पुराने‎ दिनों की यादें, पुरानी‎ डायरी , पुराने साथी ….., कहीं गहराई‎ से जुड़े हैं मुझ से । पुरानी डायरी भर चुकी बहुत दिनों पहले , नई आ गई‎ है हाथ में मगर मोह है कि छूटता ही नही ; लिखने के लिए उसी में कोई खाली कोना ढूंढती हूँ। नई डायरी से परिचय धीरे- धीरे बढेगा अभी तो वह अजनबी सी लगती है । एक छोटा सा “कोना” पुरानी‎ पहचान के नाम ---

“आड़ी-टेढ़ी पंक्तियों और
मन के उठते गिरते
ज्वार-भाटे के बीच से
शब्दों के समन्दर से झांकते
एक कोरे कागज ने पूछा--
“अनमनापन क्यों है तुम में?”
आओ ………, मुझ से
थोड़ा सा अपनापन उधार ले लो.”

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शनिवार, 22 जुलाई 2017

"मित्रता"

मित्रता तपन में फुहार सी
ठंडक का अहसास देती है।
मित्रता बिन मांगे मोती
 आंचल में हो तो
खुशियों की सौगात देती है।
मित्रता व्यक्ति की निज छांव
दुख-सुख में साथ रहती है।
बहुत कम होते हैं सुदामा
जिनके मित्र स्वयं भगवान होते हैं।
यदि हो सच्चे मित्र साथ
तो जीवन के हर क्षण
मित्रता-दिवस समान होते हैं।


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सोमवार, 17 जुलाई 2017

“मापक"

कभी किसी ने कहा था
"कैसे बताऊँ-प्यार कितना है
मापक ही नही मिलते"
बात तो सही है
मिलते तो प्रयोगशाला में जाँच होती
तिजोरी मे संभाल के रखे जाते
जिन्दगी बड़ी खूबसूरत होती
रिश्ते और परिचय
पहले मापक पर नपते
दिल टूटने का खौफ होता
संगी साथी साथ ही होते
रिश्ते-नाते दूर होते
सोने सा संसार होता
जीवन गुलशन गुलजार होता ।।


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गुरुवार, 13 जुलाई 2017

"नेह के धागे"

चाँदनी में भीगे चाँद ने
खुले आसमान से
शीतल बयार के संग
कानों में सरगोशी की
आँखें खुली तो देखा
भोर का तारा
छिटपुट तारों के संग
आसमान से झांक रहा था
कुछ नेह के धागे थे
जो खुली पलकों की चिलमन पे
यादों की झालर बन अटके थे
चाँद की ओट में चाँद के साथ
कितनी ही बातें थी
कुछ आपबीती कुछ जगबीती
भोर की लालिमा के साथ ही
ख्वाबों की तन्द्रा बिखर गई
 कही अनकही सब बातें 
यादों की गठरी में सिमट गई



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गुरुवार, 6 जुलाई 2017

“एक घटना”

अक्सर महत्वपूर्ण दस्तावेज या कोई प्रतियोगी परीक्षा का फॉर्म भरते हैं तो एक प्रश्न होता है -- “कोई शारीरिक‎ पहचान”‎ और हम ढूंढना शुरू कर देते हैं‎  माथे पर ,हाथों पर या घुटनों पर लगे चोट के निशान जो प्राय: सभी के मिल ही जाते है और याद‎ आती है उस से जुड़े घटनाक्रम की। मैं भी इन बातों से अलग नही हूँ बल्कि “बिना देखे चलती है ।” का Tag साथ लेकर चलती थी । जाहिर सी बात है चोटों के निशान भी ज्यादा ही लिए घूमती हूँ ऐसे में एक घटना अक्सर मेरी आँखों के सामने अतीत से निकल वर्तमान‎ में आ खड़ी होती है जो कभी हँसने को तो कभी इन्सान की स्वार्थपरता पर सोचने को मजबूर करती है।
                                           एक बार  किसी जरुरी काम से निकली सोचा बेटे के स्कूल से आने से पहले  काम पूरा करके घर आ जाऊँगी। आसमान में बादल थे मगर इतने भी नही कि सोचने पर मजबूर करे कि घर से निकलना चाहिए कि नही। मगर वह महिना सावन का ठहरा घर वापसी के दौरान ताबड़-तोड़ बारिश शुरू …, घर पहुँचने की जल्दी कि बेटा स्कूल से निकल गया तो पक्का भीग रहा होगा इसी सोच में कदम रूके नही , थोड़ी सी दूरी पर घर है पहुँच ही जाऊँगी। घर से थोड़ी  दूरी पर चौराहा था जहाँ ढलान भी था और बीच से क्रॉस करती  नाली भी। वहाँ पानी का बहाव ज्यादा ही था। मैनें देखा वहाँ एक कोने में हाथों में थैले लिए तीन औरतें भीगती खड़ी हैं। मैं चलते हुए सोच  रही थी --’भीग तो गई अब क्यों खड़ी हैं‎ बेवकूफ कहीं की ।’
                        धड़ाम ….., मैं चारों खाने चित्त ….., नाली में मेरा पैर जो अटक गया था । मैं संभलकर खड़ी होने की कोशिश कर रही थी  कि कानों में आवाज  गूंजी----”ऐ …,जल्दी से आ जाओ! नाली यहाँ पर है।” और वे लगभग मेरे आसपास की जगह को फलांगती हुई आगे निकल गईं और अपने छीले हुए घुटने और हथेली के साथ लड़खड़ाती हुई‎  मैं अपने घर की ओर। बरसों बाद भी  मैं उस बात को याद करती तो तय नही कर पाती उनकी स्वार्थपरता को क्या नाम दूँ ।

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रविवार, 2 जुलाई 2017

"ख्वाहिश"

कोहरे के बादल, कड़ाके की ठण्ड हो तो
सूरज की नरम धूप, अच्छी लगती है।

भारी-भरकम भीड़, अनर्गल शोर हो तो
खामोशी की चादर, अच्छी लगती है।।

लीक पर दौड़, बेमतलब की होड़ हो तो
कुछ हट कर करने की सोच, अच्छी लगती है।

भावों का गुब्बार, अभिव्यक्ति का अभाव हो तो
नयनों की मूक भाषा, अच्छी लगती है।।


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