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सोमवार, 29 जून 2020

"शब्द"

कुछ बातें ,कई बार
बन जाती हैं 
वजूद की अभिन्न 
कर्ण के ...
कवच-कुण्डल सरीखी
अलग होने के नाम पर
करती हैं तन और मन 
दोनों ही छलनी

सर्वविदित है
शब्दों की मार ...
इनको भी
 साधना पड़ता है
अश्व के समान

तुणीर से निकले 
बाण हैं शब्द 
जो लौटते नहीं..
जख़्म देते हैं 
या फिर…
मरहम बनते हैं

सीमाओं को तोड़ते
अहंकार के 
मद में डूबे शब्द
नहीं जानते कि
कब रख देंगे
किसी दिन
किसी…
महाभारत की नींव

★★★

सोमवार, 22 जून 2020

"क्षणिकाएँ"


झील किनारे...
बसी है बैया कॉलोनी,
सूखी शाखों पर ।
मेरे मन की सोचों जैसी...
थकान भरी और,
स्पन्दनहीन ।
🍁🍁🍁
सब कुछ तो है समय भी,  
और ...
समय की मांग भी ।
लेकिन...
मैं और केवल अपनी मैं के साथ,
दोनों...
चले जा रहे हैं किनारे-किनारे ।
🍁🍁🍁
कछुआ सिमट जाये जैसे...
अपने ही खोल में
वैसे ही ...
खुद के खोल में डूबा मन
 बादलों में छिपे सूरज से...
अपने आंगन में
धूप का एक टुकड़ा मांगता है ...

🍁🍁🍁🍁

शनिवार, 20 जून 2020

।। दोहे ।।


पीड़ा मन की बांटती, मैं रजनी के संग ।
माँ जाई तू बहन सी, छाया जैसा संग ।।

यामा,निशा,विभावरी , कितने तेरे नाम ।
तेरी राह निहारती ,जब चाहूँ आराम ।
                         
सुन के सब की फिर गुने ,बोले मन की बात ।
अपनी मैं के फेर में , शह बन जाती मात  ।।

दर्पण में छवि  देख के , मनवा करे गरूर ।
हिय पलड़े गुण तौलिए, जीवन क्षण भंगुर ।।

तम के संग प्रकाश है ,भोर करे संकेत ।
शीत-घाम के साथ तू , मन कर निज से हेत ।।

*****

सोमवार, 15 जून 2020

"उलझा मांझा"

बेमुरव्वत सी इस दुनिया में ,
खुद को हम बहलाये कैसे ?
जीवन बगिया उलझा मांझा ,
 उलझन को सुलझाये कैसे ?

नहीं टूटती मन की चुप्पी ,
आस-पास में लोग बहुत है ।
फिरते लादे दिल पर बोझा ,
किस को सुनने की फुर्सत है ।

बीते जिस पर वो दिल जाने ,
खुद को वो समझाये कैसे ?
जीवन बगिया उलझा मांझा ,
उलझन को सुलझाये कैसे ?

अब कहते हैं हमने उसको ,
छिप- छिप अश्रु बहाते देखा ।
पीड़ा विगलित दुखी हृदय को ,
कैसे कर पाये अनदेखा ।

जड़ विहीन नकली दुनिया में ,
अपना नीड़ बसाये कैसे ?
जीवन बगिया उलझा मांझा ,
उलझन को सुलझाये कैसे ?

 *****


शुक्रवार, 12 जून 2020

"स्त्रियाँ"

स्त्रियाँ चाह रखती आई हैं
फूलों से व्यक्तित्व की और  
 रंग -बिरंगे पंखों के साथ 
भावनाओं के साँचे में ढले
लौह-स्तम्भ से  घर की...
जिसमें देखती हैं वे 
सदियों से सदियों तक 
अपनी ही  हुकूमत...

अनपढ़ हो या पढ़ी-लिखी
बड़ी भोली होती हैं स्त्रियाँ
गुड्डे-गुड़ियों के  खेल के साथ 
 बन जाती हैं माँ और दादी जैसी ...
 सीख लेती हैं संवारना 
अपना घर-संसार 
और...स्वेच्छा से सारा दिन 
बनी फिरती हैं चक्करघिन्नी ...

कभी घर तो कभी दफ्तर
जीवन समर में कमर कसे 
डटी रहती हैं स्त्रियाँ...
जीवन की सांध्य बेला में
रण-क्षेत्र से लौटे सिपाही सी
घर के आंगन के बीच
तुलसी-चौरे पर जलाती दीपक
झांकती हैं स्मृति कपाट की झिर्रियों से 
करती रहती हैं आकलन
खोने और पाने का…. 

***
【चित्र-गूगल से साभार】

मंगलवार, 9 जून 2020

"हाइकु"



भोर लालिमा~
कलरव की गूंज
पेड़ों से आई ।

गिलोय लता~
वैद्य की दुकान में 
खरल गूंज ।

जीर्ण पुस्तक~
अंगुलियों के बीच
पुराना ख़त ।

शरद चन्द्र~
कूलबंद तोड़ती
सिंधु लहरें ।

जेष्ठ मध्याह्न~
मलाई वाला बर्फ
गली में टेर ।

***

शुक्रवार, 5 जून 2020

"क्षणिकाएं"

(1)
मुझको समझने के लिए
काफी हैं  शब्दों के पुल
मेरी दुनिया शब्दों से परे
अधूरी सी है ….
(2)
सांसारिक व्यवहारिकता
अभेद्य दीवार सी है
मेरे लिए...
पारदर्शिता के अभाव में
घुटन महसूस होती है
(3)
अचानक …
टूट कर गिरा एक लम्हा
खुद की खुदगर्ज़ी भूल...
सीना ताने खड़ा है
लेने हिसाब
ज़िन्दगी भर का...

*****