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गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

“स्वागत”


आज लगे कल की सी बात,

सरदी गरमी और बरसात ।

गोरखधन्धों में गुजर गया , 

यह साल भी निकल गया।


दहलीज़ पर आन खड़ा ,

साथी पुराना भेस नया ।

स्वागत का थाल सजाएँ ,

कुछ सुने और कुछ सुनाएँ।  


सारे कर्तव्य हमारे लिए ,

कुछ तुम भी तो निभाओ ।

सदा अपनी ही नहीं ,

औरों की भी सुनते जाओ।


नाराजगी तुमसे बहुत है ,

उम्मीद है समझ ही लोगे ।

भूल कर अपनी सुविधा ,

सच्चे मीत बन ही सकोगे ।


कहना क्या और सुनना क्या है ,

तुमसे बस इतना कहना है ।

दीन दुखी को गले लगा कर ,

सब से सुख साझा करना है ।


🍁

शनिवार, 3 दिसंबर 2022

॥ जीवन बस यूँ ही चलता है ॥



सागर की बहती लहरों सी ,

सोचों पर कब वश चलता है ।

दुर्गम वन के दावानल में  सूखे पीले पत्तों सा ,

व्याकुल उर पल पल जलता है ।


जीवन बस यूँ ही चलता है ॥


तारों की झिलमिल में आँखें ,

स्वर्णिम सी भोर को तकती हैं ।

जुगनू सी कोई आस किरण बस प्रति पल पलती रहती है ,

दिन मंथर -मंथर ढलता है ।


जीवन बस यूँ ही चलता है ॥


खामोशी से बुनता रहता, 

स्वप्न महल के नींव-कंगूरे ।

सच की धरती पर टकरा कर रहे सभी आधे-अधूरे ,

मन अपने से छल करता है ।


जीवन बस यूँ ही चलता है ॥


***

सोमवार, 14 नवंबर 2022

“त्रिवेणी”



मेघों की उदंडता अपने चरम पर है 

धरा से लेकर धरा पर ही उलीचते रहते हैं पानी..,


 अब इन्हें कौन समझाए लेन-देन की सीमाएँ ॥

🍁


इतिहास गवाह रहा है इस बात का कि 

भाईचारे में नेह कम द्वेष अधिक पलता है ..,


औपचारिकता के बीच ही पलता है सौहार्द ॥

🍁


मेरे पास हो कर भी कितने दूर थे तुम

फासला बताने को मापक भी कम लगते हैं 


उलझनों के भी अपने भंवर हुआ करते हैं 


🍁

सोमवार, 7 नवंबर 2022

“प्रवृत्ति”



सांसारिकता की किताब में

एक धुरी पर आकर

व्यक्ति की भागम-भाग का

 रथ ठहर जाता है 

एक पड़ाव पर..,

 निवृत्ति की प्रवृत्ति को  

परिभाषित करना

 थोड़ी टेढ़ी खीर है 

क्योंकि..,

समय के रथ का पहिया

तो नहीं रूकता लेकिन 

मानव मन

आज और कल के बीच

हिलकोरे खाता..,

आ कर ठहर जाता है 

 आज की दहलीज़ पर

समय के भँवर में 

 डूबता उतराता

विरक्ति को भूल अनुरक्ति की ओर 

कब प्रवृत्त होता है ..,

उसके स्वयं के अहसासों से 

परे की बात है ॥


🍁

    

मंगलवार, 1 नवंबर 2022

“तमस”



चारों तरफ तमस यहाँ है ।


उबड़-खाबड़ दुर्गम राहें ,

अंत नहीं दिखता ।

पट्टी बंधी दृग पटल पर ,

पग से पग अटका ।

तिमिरमयी रजनी में अब ,


उजियारे की किरण कहाँ है ।

      

उमड.-घुमड़ कर बादल जैसी ,

जब छायें बाधाएँ ।

गहन भंवर में उलझा मांझी ,

साथी किसे बनाएँ ।

उखड़ी सांसों के संग सोचे ,


टूटी नैया छोर वहाँ है ।


मृग मरीचिका में फंस उलझा ,

भूला अपनी गलियाँ ।

अंध कूप प्रत्याशाओं का ,

उसमें  डूबा मनवा ।

नागफनी की इस बगिया में ,


काँटे जहाँ तहाँ है ।

अपना कौन , कहाँ है ॥


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शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

“दीप जलाएँ”



काली अँधियारी रात में

अंधकार को दूर भगाएँ 

आओ साथी ! सब मिलकर 

दीपावली के दीप जलाएँ 


आँगन की दीवारों पर

छज्जों और चौबारों पर

संकरी सर्पिल तम में डूबी

कच्ची निर्जन सी वीथियों पर

स्वर्ण सदृश आभा सम्पन्न 

जगमग करते दीप जलाएँ 


आशाएँ करें स्पर्श 

नभ के विस्तार को

मान भरे भावों से

पैर भू पर रहें टिकाएँ 

निश्च्छलता के तेल से

आस्था के दीप जलाएँ


द्वेष के काँटें बुहारे

समृद्धि के रंगों से

सजे घर में तोरण द्वार 

आंगन रंगाकृतियों से

नेह के रंग घोल कर

समरसता के दीप जलाएँ 


🍁

🪔🪔 दीपोत्सव पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ 🪔🪔



 






रविवार, 16 अक्तूबर 2022

“साथी”

चल कहीं दूर चलें साथी

गम से दूर रहें साथी


व्योम चौक में उतरा चंदा

तारे बैठ गिने साथी 


आंगन बीच सिंकेगे भुट्टे

खायें सब मिलके साथी


सौंधी माटी महका आँगन

श्याम घटा बरसे साथी


झुमके,कंगन,पायल खनके

मेला पनघट पे साथी


हरसिंगार लदा फूलों से

चल चल कर देखे साथी


जीवन रेशम के धागों सा

देख नहीं उलझे साथी


***


मंगलवार, 4 अक्तूबर 2022

“सुख स्त्रोत”



घनी हरीतिमा बीच बसा

यह कैसा उपवन है 

सघन घरों के कानन में

रम्य मनोहर आँगन है


बादल घिरते साँझ सकारे

सृष्टि का मंजुल वर है

मन वितान अगरू सा महके

मधुरम पाखी कलरव है 


अनुपम थाती वात्सल्य की

कभी सुख है कभी दुख है

सौरभमय मृदुल बयार सा

जीवन - राग यही है 


राग-द्वेष और ईर्ष्या-छल से

मुक्त देवालय सम है 

दिव्य स्त्रोत परमानन्द का

प्रथम वसन्त सुमन है


मृग छौने सा चंचल चित्त

करता इसमें विचरण है

ईश्वर के वरदान सदृश 

नैसर्गिक सुख -सार यही है 


***

सोमवार, 19 सितंबर 2022

“क्षणिकाएँ ”



“मौन”


मौन के गर्भ में निहित है 

अकाट्य सत्य  

सत्य के काँटों की फांस

भला..,

किसको भली लगती है 

“जीओ और जीने दो”

 के लिए ..,

सदा सर्वदा आवश्यक है

सत्य का मौन होना ।


“तृष्णा”


न जाने क्यों..?

ऊषा रश्मियों में नहाए

स्वर्ण सदृश सैकत स्तूपों पर उगी

 विरल  झाड़ियाँ..,

 मुझे बोध कराती है तृष्णा का

जो कहीं भी कभी भी 

उठा लेती है अपना सिर..,

और फिर दम तोड़ देती हैं 

सूखते जलाशय की

शफरियों की मानिन्द ।


“शब्द”


विचार खुद की ख़ातिर 

तलाशते हैं शब्दों का संसार 

शब्दों की तासीर 

फूल सरीखी हो तो अच्छा है 

 शूल का शब्दों के बीच क्या काम

 क्योंकि..,

सबके दामन में अपने-अपने 

हिस्से के शूल तो 

पहले से ही मौजूद हैं ।


***