भूलना चाहती हूँ मैं
अपने आप को
मेरी स्मृतियाँ गाहे-बगाहे
बहुत शोर करती हैं
कोलाहल से दूर
मुझे मेरे सुकून की तलाश है
किसी पहाड़ से गिरते
झरने की हँसी के साथ
मुस्कुराये बेतरतीब घास की
ओट से कोई जंगली फूल
देखे मेरी ओर..,और
मुझे मुझी से भुला दे
मुझे उस पल की तलाश है
अक्सर पढ़ने-सुनने में
आता है - “ज़िन्दगी बसती है
किताबों से परे”
लेकिन ….
सांसारिक महाकुंभ में मुझे
गंगा-यमुना की नही
लुप्त सरस्वती की तलाश है
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