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शनिवार, 18 मई 2024

त्रिवेणी

 कमरे में मैंने करीने के साथ बहुत दिनों से 
सहेज कर रखी हैं तुम्हारी  धरोहरें..,

बस इसके लिए चन्द ख़्वाहिशों के पर कुतरने पड़े ।


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बेहिसाब अनियंत्रित धड़कनें न जाने

कौन सा संदेश देना चाहती हैं…,


तुम्हारे आने का..,या मेरे जाने का ।


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 वक़्त के साथ प्रगाढ़ता दिखाने की धुन में

रिश्ते भी बोनसाई जैसे  लगने लगते हैं ..,


 कांट-छांट के बाद मोटे लेंस के चश्मे की दरकार होगी।


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तुम्हारे नेह की जड़ें गहरी जमी हैं 

 दिल की ज़मीन पर.., 


 बहुत बार खुरचीं मगर दुबारा हरी हो गई ।


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सोमवार, 6 मई 2024

॥ प्रश्न तो हैं ,मगर उत्तर नहीं हैं ॥

अजब सी दुनिया की रीति

वयस घटती फिर भी बढ़ती

वक्त की गठरी सदा उलझी हुई क्यों है

रिक्त होते समय-घट का , नियम यही है 


मौन में तो सदा जड़ता

बोलने में ही प्रगल्भता

खामोशी पर शोर रहता भारी सा क्यों है 

सही सदा लीक, बस चिन्तन नगण्य है


लहर तट तक आए जाए

हवा मोद में  इठलाए

रेत पर फिर क्षुद्र जलचर तड़पते क्यों हैं

निज हित ऊँचे , समय सब का नही है 


नित्य करें धरती के फेरे

चन्द्र संग उडुगण बहुत से

चल-अचल में नियम , आदमी ऐसा क्यों है

प्रश्न तो हैं , मगर उत्तर नहीं हैं


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