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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

"हाइकु"

महानगर ~
वैश्विक महामारी
सूनी डगर ।

 भोर व सांझ ~
 खिड़कियों से आती
 काढ़े की गन्ध ।

जामुन गाछ~
बाल झुंड सिमटा
ग्रीष्म मध्याह्न ।

मध्य यामिनी ~
बालिका के हाथ में
केक व छुरी ।

खेत की मेड़~
बोझा सिर पे लादे
दृग छलकें ।

नदी में बाढ़ ~
तट पर मजमा
डूबती बस ।

वर्षा फुहार~
मेज पर थाली में
चाय पकौड़े ।

जीर्ण हवेली~
झरोखे के छज्जे पे
चील का नीड़ ।

★★★★★

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

"इत्तेफ़ाक़"

घने हरे पेड़ों की बीच
न जाने क्यों ?
एक अकेला वही
सूखा क्यों है ? 
अपने कमरे की
खिड़की से देखते हुए…
अक्सर सोचती हूँ 
रोज साँझ के वक्त एक कौआ
ठूंठ डाल पर आ बैठता है
और ...
ताकता है सूनी सी 
पगडण्डी की ओर
अंधेरा घिरने पर उड़ जाता है
जैसे इन्तज़ार खत्म हुआ...
उकताहट तब मेरे
सिर चढ़ कर बोलती है
जब…
पौ फटने से पूर्व एक कोयल 
कर्कश सुर में कूकती है
जैसे गुस्सा उगल रही हो
अजीब सा इत्तेफ़ाक़ है...
हरियाली के बीच सूखा पेड़
कौए की मौन प्रतीक्षा
और कोयल की नाराजगी...।।

★★★★★


शनिवार, 18 अप्रैल 2020

स्मृतियों के झरोखे से...( 2 )

ओस से गीली दूब सा
रहता है आज कल मन
होते इसके  एक जोड़ी पैर...
तो कब का तोड़ सारे बाँध
पहुँच जाता भोर बेला में
 बन के परदेसी पावणा...
सोने सी भूरी बालू के
 रेतीले धोरों में ..
मिट जाती मन की भूख
जो बैठ जाता टखनों को
दबा के छोटी-छोटी
मरू-लहरियों में…
हथेली से दुलार कर ठंडी रेत
जब अंगुलियाँ उकेरती
कोई अपने का अपना सा नाम…
और दृगें देखती
 बालू का अथाह समन्दर ..
 छिटपुट फोग की झाड़ी...
 चटख फूल संग हँसती
 कोई नागफनी…
दूर से खोज-खबर
लेता खेजड़ी...
उसकी पत्तियों को टूंगने की
फ़िराक़ में बकरी का बच्चा..
 तिनका चोंच में दाबे गौरैया..
तो यकीन मानों…
भूरी सैकत सी आँखों में
सिमट आता
सारा का सारा थार …
खारे पानी की नमी सा
उन कोयों के इर्द -गिर्द !!!

★★★★★






गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

"संदेश"

मानवता में वास है 
असीम सर्वोच्च शक्ति का
बस संसार में अकाल है तो 
केवल क़द्रदानों का...
देवदूत या परियाँ कपोल कल्पित
कल्पनाएँ नहीं हकीकत है ज़मीनी 
जो हर पल होती है हमारे आस-पास
भोर बेला में सफाई कर्मी 
कभी खाकी वर्दी में तो कभी 
चिकित्साकर्मी के रूप में
ये रहते हैं सदा सर्वदा हमारे साथ-साथ
अपनी 'मैं' में डूबे हम न जाने कौन सी
पारदर्शिता की ऐनक ...
लगाए रखते हैं आँखों पर  कि
इनका अक्स धुंधला तो क्या
दिखाई भी नही देता
तभी तो अक्सर
देखने - सुनने में आता है
कि लोग...
फेंकते हैं इन पर पत्थर
और करते हैं बिना सोचे-समझे
अपमानित...
चेत जाना चाहिए अभी भी वक्त है
यह फिसल गया हाथ से
तो पछताने के लिए
न तो समय बचेगा और न ही वजूद !!

★★★

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

स्मृतियों के झरोखे से...( 1 )

तुम्हारे अपनों के साथ
पाँच दिन तुम से 
दूर रह कर
बिताने के नाम पर मन की
अकुलाहट…. 
सांझ के समय
बढ़ जाया करती थी
और ले जाती थी मुझे
छत के एक छोर पर...
जहाँ से  दिखता था 
अपने  गांव की पहाड़ी का कोना…
मंदिर की बुर्ज़ पर
टिमटिमाते बल्ब की रोशनी
 बाँध देती थी मेरे मन को
अपने घर के आंगन से….
  एक बल्ब वहाँ भी जला करता था
जब सांझ को 
एक कमरे को खोल ...
ढेर सारे बटनों के बीच
स्विचबोर्ड पर 
तुम्हारी अभ्यस्त अंगुलियां 
दबा देती थी कोई बटन 
उजाला छिटक जाया करता था
आंगन में...
मेरे मन की डोर उस आंगन में
डोलती तुम से बंधी थी माँ !
 उन पाँच दिनों में 
नन्हीं अंगुलियों पर
हर सांझ छत के कोने पर
खड़े हो  गिनती थी दिन
एक , दो , तीन , .., ....,
ये बात कभी तुम से
साझा नहीं कर पाई मैं
मगर जब भी देखती हूँ
 किसी पहाड़ी की बुर्ज
पर कोई मंदिर
उसे  देख कर
वो बात
स्मृतियों के झरोखों से
झांक कर तुम्हारी
बहुत याद दिलाती है
माँ !!!

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

"समय"

( 1 )

चिनार के पत्तों से
मुठ्ठी की रेत सा
फिसलता कोहरा
आसमान में …,
छिटपुट तारों के बीच
उदास सा शुक्र तारा
और…
स्थिर पलों में
तिल तिल खर्च होता
आदमी….

(2)

बोझल तेवर लिए
हवाएँ ...
शून्य ताकती
नीरव पगडंडियां...
दिन-रात के सन्नाटे को
भेदती है….
एक चिड़िया की
टिटकार...
बैचेन पखेरु भी
व्याकुल हैं….
खामोश उड़ान की तेजी
जता रही है….
इनको भी चिन्ता है
अपने अपनों की….

★★★★★