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बुधवार, 25 मई 2022

“एक गीत”


उगते सूरज की आभा में

मन समझे ऐसी भाषा में 

मैं कोई एक गीत और..,

तुम सारा संसार लिखो


पर्वत के उर से उपजी

वर्तुल वीथियों में उलझी

जल की नन्ही सी बूँद

पहुँची सागर के पास

मैं उसका इतिहास और..,

तुम सागर विस्तार लिखो


झिलमिल करते 

नभ आंगन का

कोई धूसर खाली कोना

क्यों रिक्त रहा उडुगण के बिन

मैं उसका अभिप्राय और..,

तुम सारा ब्रह्माण्ड लिखो


अगम राह में एक राही

पाने को मंजिल मनचाही

करने बाधाएँ पार

करता खुद को प्रतिबद्ध

मैं उसका संकल्प और..,

तुम जीत का हर्ष अपार लिखो 


***

बुधवार, 18 मई 2022

“त्रिवेणी”



बालकनी में नहाए धोये गमलों में खिले गुलाब 

रेलिंग से बाहर हुलस हुलस कर झांक रहे हैं और ..,


उस पार मैदान में गुलमोहर अपने साथियों संग इठला रहे हैं ॥

🍁


मन सिमट रहा है खोल में कछुए जैसा

और उसी खोल में अभिव्यक्ति भी ..,


पर ग़ज़ब यह कि शोर बहुत करता है ॥

🍁


किर्चें चुभ गई काँच सरीखी

और लहू की बूँद भी नहीं छलकी.., 


गंगा-जमुना हैं कि बस.., बह निकली ॥


🍁



बुधवार, 11 मई 2022

“ख़ामोशी”



उदास हैं चाँद-तारे

साँवली सी रात में

धरती के

जुगनुओं जैसे जगमग

 करते लैम्पपोस्ट भी 

असफल हैं 

उनको बाँटने में 

 मुस्कुराहट

 

मिलन-बिछोह के

राज हैं उनके भी

 अपने…

घर की बात घर में रहे

यही सोच कर

बादलों ने भी डाल दिया 

नमीयुक्त 

झीना सा आवरण 

उनकी उदास सी 

रिक्तता पर


उनींदी सी करवट

के साथ 

दिलोदिमाग़ में

 कौंधती है यही बात

कि…, क्यों 

 आज नहीं दिखी

नीलगगन के आंगन में

रोज़ सरीखी

चंचल सी सुगबुगाहट


***


बुधवार, 4 मई 2022

“क्षणिकाएँ”



अक्सर मैं

अपने और तुम्हारे 

दरमियान 

अदृश्य सी

दीवार देखती हूँ 

जो नज़र से नहीं 

दिल से 

दिखाई देती है

🍁


सोच सोच का 

फ़र्क़ है

मिली तो मिली 

ना मिली तो ना सही

कारवाँ के मुसाफ़िर भी तो

गंतव्य की ख़ातिर

यूँ ही …

 एक दूजे के साथ चलते हैं ।

🍁


अनामिका पर

 तिल के जोड़े  को देख 

किसी ने कहा था -

यह अमीरी की नहीं

 ऋण की निशानी है 

आजकल…

 वे दिखना बंद हो गए हैं 

भान होता है…

 या तो सारे ऋण चुक गए 

या फिर काम 

और..

 समय के साथ 

अपने आप घिस गए हैं 

🍁