बालकनी में नहाए धोये गमलों में खिले गुलाब
रेलिंग से बाहर हुलस हुलस कर झांक रहे हैं और ..,
उस पार मैदान में गुलमोहर अपने साथियों संग इठला रहे हैं ॥
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मन सिमट रहा है खोल में कछुए जैसा
और उसी खोल में अभिव्यक्ति भी ..,
पर ग़ज़ब यह कि शोर बहुत करता है ॥
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किर्चें चुभ गई काँच सरीखी
और लहू की बूँद भी नहीं छलकी..,
गंगा-जमुना हैं कि बस.., बह निकली ॥
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