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बुधवार, 29 मई 2019

"वर्ण पिरामिड"

(1)

ये
सूर्य
रश्मियाँ
रंग ढली
हो एकाकार
उर्जित करती
वसुधा कण कण


(2)

ये
गिरि
कानन
जलस्रोत
दुर्लभ भेंट
ईश-प्रकृति की
चैतन्य जगत को

(3)

काले
बदरा
रिमझिम
बरसो अब
तुझको तकती
बेकल हो धरती


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गुरुवार, 23 मई 2019

"वक्त"

दोपहर का समय और दैनिक कामों में उलझी मैं कुछ सोच रही थी कि मोबाइल पर कोयल की कुहूक ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया । जैसे ही कॉल अटैंड की उधर से बिना सम्बोधन के परिचित आवाज आई--'कब आओगी.. आठ बरस बीत गए । कल सपने में दिखी..कभी मिलने को मन नहीं करता ?'
      उस लरजती आवाज से मन का कोई कोना भीग सा गया और भरे गले से मैने जवाब दिया--'आऊँगी ना..मन मेरा भी करता है । आप सब व्यस्त रहते हो..आऊँगी जल्दी ही.. वक्त निकाल कर ।'
           'पक्का ना .., बहाना नहीं । मैं छुट्टी ले लूंगी एक-आध दिन की ।'  इधर-उधर की कुशल-क्षेम के
बाद हम दोनों ने एक दूसरे से विदा ली ।
         मोबाइल टेबल पर रखते हुए मैं सोच रही थी -- उम्र भर के नेह और आठ बरस के बिछोह के हिस्से में केवल एक-आध दिन । ---- 'आजकल वक्त बहुत कीमती हो गया है शायद ।'

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शुक्रवार, 17 मई 2019

"खोज"

कमी हमारी
या हमारे नामों की
पता नही..मगर
हमारे ग्रह-नक्षत्रों  का
आकर्षण
जब टूटता है तो
विकर्षण भी
शेष नहीं बचता
उत्तरी ध्रुव का
छोर सी मैं
न जाने
कितने कारवां...
तय कर आई
भटके मुसाफिर सी
खोजती ...
दक्षिण सा सिरा

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शनिवार, 11 मई 2019

"आदमी"

कैसे कैसे रंग बदलता  आदमी ।
वक्त के साथ ढलता आदमी ।।

परिवर्तन में ये तो इतना माहिर ।
गिरगिट से होड़ करता आदमी ।।

स्याह रंग की पहनता पैहरन  ।
फिर भी उजली कहता आदमी ।।

आगे बढ़ने की होड़ मे देखो ।
अपनों पे पैर रखता  आदमी ।।

आश्रित सदा अमरबेल सा ।
खुद को बरगद समझता आदमी ।।

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सोमवार, 6 मई 2019

"बूँद"

सावन की भोर और
घने बादलों से खेलती
सिहरन भरती पछुआ
तभी अचानक टिपुर-टापुर
की रिमझिम के साथ
बादलों को छोड़ एक बूंद
आसमान तकते चेहरे पर
यूं गिरी जैसे ….,
कोई राह भटकी नज्म
पलकों की ओट से
भीगे लबों से करूँ गुफ्तगू कि
वह फिसली शफरी सी
और जा मिली
असंख्य बूंदों के संसार में
तब से अब तक…,
वही भटकी नज्म ढूंढती हूँ
जब सावन की भोर हो
और बारिशों का दौर हो
कभी बरसती बूंदों में
कभी फूलों की पंखुड़ियों में
ओस की बूंद सी थरथराती
सघन पेड़ो के बीच
मकड़ी के जालों में
मोतियों सी झालर में अटकी
मेरे मन की अभिव्यक्ति
बारिश की…, बारिश में खोयी
बारिश की एक बूंद
      
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गुरुवार, 2 मई 2019

"त्रिवेणी"

 ( 1 )

गर्म अहसास पूरी शिद्दत से मौजूद है
कल कल करते निर्झर कब के सूख गए

ग्लेशियर तो पहले ही कोहिनूर जैसे हैं

( 2 )

ख्वाब की तरह आ बसते हो आँखों में
भोर के साथ स्मृतियाँ भी धुंधला जाती हैं

बस…,आँखों की चुभन तुम्हारा अहसास जताती हैं

( 3 )

एक जैसी ही है संरचना मन और प्याज की
गाँठ के एक बन्धन में मजबूती से बंधी

आवरण टूटा नहीं कि खुलती जाती हैं परत दर परत

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