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शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

"यादें-3"

कभी-कभी यूं भी होता है
कि आप एक शिद्दत से
कुछ याद करते हैंं मगर
वक्त रेत की मानिन्द
आपकी मुट्ठी से फिसल जाता है।
कभी-कभी यूं भी होता है
कि अकारण ही
कुछ देखकर, कुछ सोचकर
कुछ यादें आपके दिल में उभर आती हैं।
मगर जज़्बातों की अनदेखी
कभी आपकी, कभी उसकी
उन मीठे लम्हों को दिल में
कहीं दफन कर देती है।
कभी अचानक
दिल के दरवाजे पर दस्तक दो तो
यादों के समन्दर में
एक हल्की सी आहट होती है
और दिल गहराइयों से कहीं एक आवाज उभरती है
-----ऐसा क्या?


XXXXX

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

"यादें-2"


सुरमई सांझ,सोने सी थाली सा ढलता सूरज
तरह-तरह की आकृतियों से उड़ते पंछी
घरों से उठता धुँआ,
चूल्हों पे सिकती रोटियों की महक
गलियों में खेलते बच्चे
माँ की डाँट,खाने की मीठी मनुहार
जाने कहाँ खो गए
एक दूसरे से आगे जाने की होड़
जिन्दगी की भागमभाग,
सब कुछ पा लेने की स्पर्धा मे
हम कुछ थे कुछ और हो गए
अठखेलियाँ करता बचपन,
बादलों में तस्वीरें बनाने की कल्पना
जाने कहाँ रह गई
पछुआ पवनों की सिहरन,
बरखा की बूँदों की छम-छम के साथ खिलती  हँसी
ना जाने कौन दिशा में बह गई
पूर्णिमा की सांझ,
मेरे साथ चलता चाँद
चाँद में चरखा कातती बुढ़िया,
नीम का पेड़
यादों में डूबा मन
रोशनी के उजालों मे,
भागती भीड़ में ,यातायात के जाम में
ना जाने कहाँ खो गया
शरद पूर्णिमा का चाँद,
चाँदनी में सुई पिरोने का सपना
इस शहर की तरह अजनबियत
की चादर ओढ़ , मेरा साथ छोड़
किसी और का हो गया 

XXXXX

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

"शुरुआत"

लम्बी खामोशी के बाद
एक दिन आवाज आई---
"फिर से शुरुआत करें
सुख-दुख साझा करने की"
तीर सी सिहरन
समूचे वजूद को सिहरा गई
कुछ देर की चुप्पी
और अन्तस् से एक आवाज उभरी
ऐसा है - “वक्त गुजर गया”
बहुत काम बाकी हैं
जो हमारे साझी थे
कुछ मेरे और कुछ तुम्हारे
ऐसा है....
मेरे पास काम बहुत हैं
और तुम्हारे पास फुर्सत
खाली वक्त में कुछ
पुनरावलोकन कर लो
अगली बार ऐसा करना
मेरे और तुम्हारे काम
बराबर साझा करना
अगर उसकी मर्जी हुई
तो एक बार और सही--
फिर से शुरुआत करेंगे
अपने सुख-दुःख
साझा करने की





XXXXX

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

“क्षणिकाएँ”

( 1 )

अपनेपन की धूप

कुछ कुनकुनी सी है
नील निर्झर दृगों का गीलापन
गवाह है इस बात का
उस पार के ग्लेशियर
पिघलने लगे हैं .

( 2 )
कौन से ईंट - गारे से तुमने
जिद्द का मजबूत पुल
तैयार किया है ?
स्नेहभाव से कितनी भी सेंध लगाओ
फेवीकोल के जोड़ से भी
मजबूत और गाढ़ा जोड़ है
लाख जतन करो टूटता ही नही .

XXXXX

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

“प्रकृति-3”

रेतीले धोरों पर ओस की बूँदें
श्वेत मोतियों की चादर सी लगती है ।

मलयानिल के झोंकों से झुकी धान की बालियाँ
नृत्य करती अप्सराओं समान लगती हैं ।

शरद ऋतु में धवल अलंकारों से सजी प्रकृति
माँ सरस्वती सी महान लगती है ।

XXXXX

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

"प्रकृति-2"

मेघों से ढकी वादियाँ
हवाओं में गुनगुनाहट।

भंवरों का गुंजन
फूलों की मुस्कुराहट।

खगों का कलरव
वृक्षों के पत्तों की मरमराहट।

खामोश फिज़ाओं में
जीवन की सुगबुगाहट।

चहुँ ओर फैली है
रोशनी की जगमगाहट।

कहो प्रकृति देवी!
आपके आंगन में आज
किसके आने की है आहट।



XXXXX

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

“प्रकृति-1"

दुर्गम पहाड़ों की बलखाती पगडंडियाँ,
कोयल की कूक, आम की बौर से लदी अमराईयां,
झरनों की कलकल से गूंजती,
फूलों से महकती वादियां।
घनी ओस से भीगी राहें,
मक्का की सिकती सौंधी खुश्बू से भरी गलियाँ,
मोटे कम्बलों से ढके लोग,
गन्तव्य की ओर भागती मेहनतकशों की टोलियाँ।
गगन चूमते दरख्तों के बीच झांकता चाँद,
गिरि तलहटियों में सोये बादल
आज खामोश से क्यों हैं?
मन को आकर्षण में बाँधतें पल
गहरी घाटियों में सोयी प्रकृति
इतनी मौन क्यों है?


XXXXX