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बुधवार, 29 नवंबर 2017

"आदत"

उम्र‎ का आवरण
मंजिल का फासला
तय करते  करते‎
थक सा गया है
कदमों की लय भी
विराम चाहती हैं
आदत है कि…..,
आज भी चाँद के
साथ साथ चलती हैं
पानी से भरी बाल्टी में
बादलों की भागती परतें
आज भी वैसे ही
उतरती हैं और
अनन्त आसमान की
ऊँचाईयाँ मेरी आँखों‎
के साथ  साथ‎
छोटे से बर्तन की
सतह में भरती है .

XXXXX

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

“सांझ-सवेरे”

सांझ-सवेरे आजकल मन , पुरानी यादों में डूबता है ।
क्षितिज पर बिखरी लाली में , उगते सूरज को ढूंढता है ।

खाली कोना छत का और घण्टाघर की घड़ी के तीर।
बेख्याली में उलझा मन , खोये बचपन को ढूंढता है

नीड़ों में लौटते परिन्दे वो आसमान में  छिटपुट तारे ।
ढलती सांझ के साये में , सांझ के तारे को ढूंढता है ।

एकाकी सा खड़ा घर ये बैया कॉलोनी सी कतारें ।
बेगानों से भरी भीड़ में , बस अपनोंं को ढूंढता है ।

बाँध रखी है दीवाने ने साँसों संग उम्मीदों की डोर ।
आयेंगे हालात काबू में , वह दिन औ वह रात ढूंढता है ।



             XXXXX

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

"वो दिन"

                     
जाड़ों  की ठिठुरन और
तुम्हारे हाथों बने पंराठे
जायका आज भी
वैसा‎ ही मुँह में घुला है ।

बर्फ से ठण्डे हाथ और
सुन्न पड़ती अंगुलियाँ
जोर से रगड़ कर
गर्म‎ करने का हुनर
तुम्हें देख कर
तुम ही से सीखा है ।

गणतन्त्र दिवस की तैयारियाँ और
शीत लहर‎ में कांपते हम
तुम्हारी जेब से निकली
मूंगफली और रेवड़ियों का स्वाद
तुम्हारे साथ ऐसी ही
ठण्ड में बैठ‎ कर चखा है ।

वो दिन थे बेफिक्री के और
बेलगाम सी थी तमन्नाएं
पीछे झांक कर देखूं तो लगता है ….,
“वो दिन” भी क्या दिन थे।

        XXXXX

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

“त्रिवेणी"

(This image has been taken from google)

  ( 1 )

उगते सूरज से मांगा है उन्नति और विकास
चाँद से स्निग्धता और उज्जवलता ।
 
क्या बताऊँ तुम्हें…..,कि तुमसे कितना प्यार है ।।


  ( 2 )

लम्बी  डगर और उसके दो छोर
बिना मिले अनवरत साथ  साथ‎ चलते हैं‎ ।

जीने का हुनर पगडंडियाँ भी जानती हैं ।।


XXXXX

रविवार, 5 नवंबर 2017

“गज़ल” ( 2 )

गज़ल सुनने‎ मे पढ़ने में बड़ी भली लगती हैं वे चाहे दर्द बयां करें या जिन्दगी  का  फलसफ़ा …, बात कहने का हुनर बड़ा मखमली होता है। गज़ल लिखने का हुनर तो नही है मेरे पास सोचा  क्यों ना एक नज़्म लिखूं जिसमें गज़ल की खूबियों का जिक्र हो . --------------

रूमानी मखमली अल्फाज़ो में लिपटी
रंज और गम की कतरनों में सिमटी
रीतिकाल की  चपल सी  नायिका
राग और सोज के रंग में ढली है गज़ल ।।

मधुशाला में कयामत करती
भावनाओं  के दरिया सी बहती
बेला की कलियों सी महकी
काव्य की अनुपम  कारीगरी है गज़ल ।।

महफिलों  में रौनक करती
दिलों में सुकून भरती
इन्द्र‎धनुष के रंगों सी सतरंगी
हर दिल  को बड़ी‎ भाती है  गज़ल ।।

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बुधवार, 1 नवंबर 2017

"त्रिवेणी"


                        
(This image has been taken from google)


(1)

सरहदें तो अपने वतन की  ही है मगर ना जाने क्यों
उत्तर से दक्कन  आने वाली बयार  भली सी लगती है ।

बात कुछ भी नही बस तुम्हारी याद आ जाया करती है।।

 ( 2 )

सर्द हवाओं के  झुण्ड कुछ ढूंढ रहे हैं
गाँव की गलियों और पनघट के छोर पर ।

सरहद से किसी फौजी का पैगाम आया लगता है ।।  

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