अनुभूतियों की गठरी में बंधी
जी रही हैं मेरी कविताएँ
मेरे साथ-साथ
ज़िद्दी बच्चे सी
थामे आँचल का छोर
डोलती रहती हैं
मेरे आगे-पीछे,मेरे साथ-साथ
फ़ुर्सत के लम्हों में
जब सोचती हूँ करना इन्हें साकार
तो सरक कर धीमे से
फिसल जाती हैं इधर- उधर
शब्द थक हार जाते हैं
इनकी मनुहार करते-करते
कोई बात नहीं…,
अपनी हैं , अपनी ही रहेंगी
मुझ में रम कर देती हैं
मुझको सुकून..,
जिस दिन ले लेंगी अपना रूप
सबको अपनापन देंगी
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