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गुरुवार, 13 जून 2024

“प्राकृतिक सुषमा”


बर्फ की कम्बल ओढ़े 

पर्वत श्रृंखलाओं  की

गगनचुंबी चोटियाँ ..,

 सिर उठाये 

 मौज में खड़े त्रिशंकु वृक्ष 

जिधर नज़र पसारो

 मन्त्रमुग्ध करता.., 

अद्भुत और अकल्पनीय 

प्रकृति  का सौंदर्य 

मन को समाधिस्थ करता है ।

किसी  पहाड़ की 

खोह से ..,

कल-कल ,छल-छल

मोतियों सा बिखरता

काँच सरीखा पानी 

आँखो के साथ मन

 तृप्त करता है ।

कंधों पर  अटकी  टोकरियाँ 

बोझ से लदे

फूल से मुस्कुराते आनन

सुन्दरता के प्रतिमान गढ़ते हैं ।

शहरी परिवेश में पला-पढ़ा

 गर्वोन्नत- आत्ममुग्ध मनुष्य  

 अपनी ही नज़र के मूल्यांकन में

शून्य हो जाता है

 जब..,

उर्ध्वमुखी पहाड़ों और

अधोमुखी घाटियों में 

देवदूत सरीखे बादल 

धीरे-धीरे उतरते देखता हैं ।


***









शनिवार, 18 मई 2024

त्रिवेणी

 कमरे में मैंने करीने के साथ बहुत दिनों से 
सहेज कर रखी हैं तुम्हारी  धरोहरें..,

बस इसके लिए चन्द ख़्वाहिशों के पर कुतरने पड़े ।


🍁


बेहिसाब अनियंत्रित धड़कनें न जाने

कौन सा संदेश देना चाहती हैं…,


तुम्हारे आने का..,या मेरे जाने का ।


🍁


 वक़्त के साथ प्रगाढ़ता दिखाने की धुन में

रिश्ते भी बोनसाई जैसे  लगने लगते हैं ..,


 कांट-छांट के बाद मोटे लेंस के चश्मे की दरकार होगी।


🍁


तुम्हारे नेह की जड़ें गहरी जमी हैं 

 दिल की ज़मीन पर.., 


 बहुत बार खुरचीं मगर दुबारा हरी हो गई ।


🍁


सोमवार, 6 मई 2024

॥ प्रश्न तो हैं ,मगर उत्तर नहीं हैं ॥

अजब सी दुनिया की रीति

वयस घटती फिर भी बढ़ती

वक्त की गठरी सदा उलझी हुई क्यों है

रिक्त होते समय-घट का , नियम यही है 


मौन में तो सदा जड़ता

बोलने में ही प्रगल्भता

खामोशी पर शोर रहता भारी सा क्यों है 

सही सदा लीक, बस चिन्तन नगण्य है


लहर तट तक आए जाए

हवा मोद में  इठलाए

रेत पर फिर क्षुद्र जलचर तड़पते क्यों हैं

निज हित ऊँचे , समय सब का नही है 


नित्य करें धरती के फेरे

चन्द्र संग उडुगण बहुत से

चल-अचल में नियम , आदमी ऐसा क्यों है

प्रश्न तो हैं , मगर उत्तर नहीं हैं


***

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

“ढाई अक्षर”

सुनहरी रेत में

सुघड़ता से पग धरती

पदचिह्नों पर ..,

पदचिह्न एकाकार करती

वह चली जा रही है धीरे-धीरे

ढाई अक्षर का शाश्वत स्वरूप 

यूँ  भी बना करता है 

 

अनन्त अन्तरिक्ष विस्तार में

तरू-पल्लव की सरसराहट में

पक्षियों की चहचहाहट  में

बारिश की बूँदों के धरती से 

विलय में…,

प्रेम का सृजन  हुआ करता है 


कबीर का प्रेम..

निर्गुण ब्रह्म में सब कुछ देखता है 

सूर का प्रेम ..,

शिशु  मुस्कुराहट में खेलता है  

गृहस्थी के सार में साँसें लेता है 

तुलसी का प्रेम 

तो अरावली की उपत्यकाओं में 

गूँजता है मीरां का प्रेम


प्रेम सागर मंथन का फल है 

कहीं वह शिव कण्ठ मे गरल 

तो कहीं..,.

देवों का अमृत घट है


***


गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

“दिल से दिल तक”

उस दिन बातें करते-करते
एक छोटी सी बात 
बड़ा समन्दर बन आ खड़ी हुई 
हमारे बीच ..,
किनारे के उस छोर पर
तुम्हें असमंजस में डूबा देख
मैंने हँसी का पुल बना लिया
अपने दरमियाँ…
तुम्हें अपने पास बुला कर
ठीक किया ना ?
मेरे लिए तो इतना ही 
काफी है कि 
तुम्हारे दिल तक मेरी 
बात पहुँची
अच्छा लगा सुन कर
बाकी अपना क्या है?
अपने दिल में तो वैसे ही 
तुम्हारी स्मृतियाँ 
ब्लड ऑक्सीजन सी
बहती रहती हैं

                                                ***

 

रविवार, 24 मार्च 2024

“लैण्ड-स्केप”


प्रकृति ने 
हर बार की तरह
इस बार भी..,
वासन्ती हवाओं से बात की है ।
आसमान के नीले रंग में
सागर के पानी का रंग घोल
पहाड़ों की मिट्टी के साथ 
मोरपंखी झड़बेरियों सरीखे 
अँजुरी भर फूलों से 
अलौकिक सा ..,
‘लैण्ड-स्केप’सजाने की ।
ऐसे में..,
रंगोत्सव पर्व के
लाल-पीले , हरे-नीले और
गुलाबी रंग खूब खिलते हैं 
सरसों और गोधूम की पकती
बालियों के साथ
वसुंधरा के आँचल में ।
  
***

💐होली की हार्दिक शुभकामनाएँ 💐




शुक्रवार, 15 मार्च 2024

कविताएँ

अनुभूतियों की गठरी में बंधी

 जी रही हैं मेरी कविताएँ

 मेरे साथ-साथ 


ज़िद्दी बच्चे सी 

थामे आँचल का छोर

डोलती रहती हैं 

मेरे आगे-पीछे,मेरे साथ-साथ 


फ़ुर्सत के लम्हों में 

जब सोचती हूँ करना इन्हें साकार 

तो  सरक कर धीमे से

फिसल जाती हैं इधर- उधर


शब्द  थक हार जाते हैं  

इनकी मनुहार करते-करते


कोई बात नहीं…,

अपनी हैं , अपनी ही रहेंगी

मुझ में रम कर देती हैं 

मुझको सुकून..,

जिस दिन ले लेंगी अपना रूप

सबको अपनापन देंगी

***