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सोमवार, 26 सितंबर 2016

"शब्द"

'शब्दोंकी महिमा कम नही होती
भावनाओं के पंख ना होते
मन अभिव्यक्ति नही होती

जो ना होते 'शब्दहम कहाँ होते
मैं ना होती, तुम ना होते
बस दोनों जहां होते ।।

धर्म, संस्कृति, आचार-विचार
'शब्द', सब की शक्ति है
मानव सभ्यता के इतिहास की
'शब्दबड़ी अभिव्यक्ति है ।।


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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

"डोर"

तेरे से बंधी मन की डोर
कई बार मुझे
तेरी ओर खींचती है

जी चाहता है
तेरी गलियों के फेरे लगाऊँ
जाने-पहचाने चेहरे देख मुस्कराऊँ

जो अपने थे रणछोड़ हो गए
तेरे गली-कूंचे कुछ और थे
अब कुछ और हो गए

हवाएँ बदली , राहें अजनबी सी हैं
तेरा बेगानापन मेरा सुकून छीन लेता है
तुझसे बँधा थागा , मन पुनः अपनी ओर खींच लेता है .

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गुरुवार, 22 सितंबर 2016

“सोच" (हाइकु)

मन की बातें
चिट्ठियों की सौगातें
कहीं खो गई

राह तकना
तपती दोपहरी
नेह की पाती

अपनापन
मिठास का दरिया
स्नेह-बन्धन

वैश्वीकरण
सिमटती दूरियां
आपसी स्पर्धा

नए विचार
दरकते दायरे
भागमभाग


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बुधवार, 14 सितंबर 2016

“पानी”

जीव उत्पति का कारक है पानी ।
पंचभूत का आधार है पानी ।।
इन्सान की आँखों की लाज है पानी ।
जीवों की प्यास बुझाता है पानी ।।
तोड़ दे अपने बांध तो विनाश है पानी ।
कहीं आग बुझाता है तो कहीं आग लगाता है पानी ।।

सोमवार, 12 सितंबर 2016

“हाइकु”

हाइकु परिचय


कविता लिखने की जापानी विधा जिसमें प्रकृति सौन्दर्य के साथ भावानुभूति को विशेष स्थान दिया जाता है। प्रत्येक चरण में तीन पंक्तियाँ होती हैं जिनमें क्रमश पाँच, सात और पाँच अक्षर होते हैं। संयुक्त अक्षर एक अक्षर की गणना के अन्तर्गत आता है आकार की लघुता और पंक्तियों की पूर्णता हाइकु कविता का मुख्य गुण है।


(1)
"खामोशी"

शान्त जलधि
खामोशी की चादर
नीरव रात

मैं और तुम
सागर तट पर
विचार मग्न

ठंडी बयार
                 हरहराता जल                 
सैकत कूल

ऊषा किरण
क्षितिज छोर पर
जागा जीवन

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(2)

"व्यथा"

भोर का तारा
रुनझन घंटियाँ
भागते बैल

तपती धूप
बेसहारा किसान
पेड़ की छाँव

सूना आंगन
अनगिनत आस
मन उदास

फिरे बेचारा
कुदरत का मारा
सांझ का तारा

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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

“खामोशी”

तुम्हारी खामोशी...,
जैसे बिन मौसम की बरसात
जब मन किया...,
बस यूं ही पसर जाती है
हवाओं का दवाब कुछ कम सा है
निर्वात का आभास कहता है
आँधी या तूफान आने वाला है
तुम्हारी खामोशी भी कुछ-कुछ वैसी ही है
बताओ ना कौन सा गुल खिलाने वाले हो ?

सोमवार, 5 सितंबर 2016

“पंछी"

पंछी! कौन दिशा से आए तुम
अपने पंखों से लिपटा कर
एक भीनी सी खुश्बू लाए तुम।
ये मीठी सी खुश्बू,
जानी पहचानी लगती है।
मेरे घर आंगन के बीच,
क्या अब भी महफिल सजती है?
मेलों-ठेलों की चर्चाएं
क्या अब भी रसीली लगती हैं?
मांए बेटी की विदाई पर
क्या अब भी आँखें भरती हैं?
अपनी गौरया के खोजों को
क्या उनकी आँख तरसती हैं?
पंछी अब के जाओ तो
बस इतना सा करते आना |
उस सौंधी सी माटी को
उन बचपन की यादों को
अपने पंखों की चादर पर
थोड़ा सा ही सही पर
लिपटा कर मेरे ख़ातिर लेते आना ।

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शनिवार, 3 सितंबर 2016

“सवाल”

परसाईं जी ने कभी लिखा था-
“ पगडंडियों का जमाना है “
 बड़े दूरदृष्टा थे
 पहले ही भांप गए
 आने वाला कल कैसा है ?
 आजकल तो बस
 पगडंडियाँ ही पगडंडियाँ दिखाई देती हैं
 इन पगडंडियों की भीड़ में
 उनका क्या जो केवल
 सीधी राह चलते हैं .

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

" यादें"

फुर्सत के पलों में तेरे साथ जीया
हर लम्हा याद आता है।।

हफ्तों से गुमसुम बादलों से ढका
आसमान का वो खाली कोना याद आता है।

कोहरे की चादर संग बारिश मे भीगते हुए
तुमसे बिछड़ना याद आता है।

छोटी सी पहाड़ी उस पे मन्दिर
मन्दिर का दीपक याद आता है।

बादल बरसे या बरसी आँखें
आँखों का गीलापन याद आता है।

फुर्सत के पलों में तेरे साथ जीया
हर लम्हा याद आता है।।


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