Copyright

Copyright © 2024 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

सोमवार, 5 सितंबर 2016

“पंछी"

पंछी! कौन दिशा से आए तुम
अपने पंखों से लिपटा कर
एक भीनी सी खुश्बू लाए तुम।
ये मीठी सी खुश्बू,
जानी पहचानी लगती है।
मेरे घर आंगन के बीच,
क्या अब भी महफिल सजती है?
मेलों-ठेलों की चर्चाएं
क्या अब भी रसीली लगती हैं?
मांए बेटी की विदाई पर
क्या अब भी आँखें भरती हैं?
अपनी गौरया के खोजों को
क्या उनकी आँख तरसती हैं?
पंछी अब के जाओ तो
बस इतना सा करते आना |
उस सौंधी सी माटी को
उन बचपन की यादों को
अपने पंखों की चादर पर
थोड़ा सा ही सही पर
लिपटा कर मेरे ख़ातिर लेते आना ।

XXXXX

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"