पंछी! कौन दिशा से आए तुम
अपने पंखों से लिपटा कर
एक भीनी सी खुश्बू लाए तुम।
ये मीठी सी खुश्बू,
जानी पहचानी लगती है।
मेरे घर आंगन के बीच,
क्या अब भी महफिल सजती है?
मेलों-ठेलों की चर्चाएं
क्या अब भी रसीली लगती हैं?
मांए बेटी की विदाई पर
क्या अब भी आँखें भरती हैं?
अपनी गौरया के खोजों को
क्या उनकी आँख तरसती हैं?
पंछी अब के जाओ तो
इतना सा करते आना |
अपने पंखों की चादर पर
थोड़ा सा लिपटा कर
उस सौंधी सी माटी को
उन बचपन की यादों को
तुम मेरे लिए लेते आना।
XXXXX
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- "मीना भारद्वाज"