रोज ही मिलती थी
वह...
बोरे सा कंधे पर डाले
स्कूल वाला बैग
एक अबूझ प्रतीक्षा में रत
जैसे अनजान डोर बंधी हो
हमारे दरमियान...
मुझे देखते ही
उसकी दंत पंक्ति चांदनी फूल सी
खिल जाती और हम दोनों
साथ-साथ
चल पड़ती अलग-अलग
गंतव्य की ओर...
एक दिन राह में
अपनी मुठ्ठी से उसने
भर दी मेरी मुठ्ठी
देखा तो ...
सुर्ख बेर थे मेरी अंजुरी में
खट्टे -मीठे और रसीले
पहली बार
मौन का अनावरण-
“हमारे खेत के हैं
अब की बार खूब लगे हैं”
-”मेरे साथ चलोगी”
व्यवहारिकता की व्यस्तता में
उसने मुझे कब छोड़ा
और मैंने उसे कब
याद नहीं…
मगर शरद में जब भी देखती हूँ
लाल,पीले,हरे बेरों की ढेरियां
वह…
मेरी स्मृतियों के कपाट
खटखटा कर
खड़ी हो जाती हैं मेरे सामने
और पूछती है-
“मेरे साथ चलोगी”
***
[चित्र:- गूगल से साभार ]