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गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

"अपने पराये"


(This image has been taken from google)
पेड़ों की डाल से
टूट कर गिरे चन्द फूल‎
अलग नही है
ब्याह के बाद  की बेटियों से
आंगन तो है अपना ही
पर तब तक ही
जब तक साथ था
डाल और पत्तियों‎ का
अब ताक रहे हैं
एक दूसरे  को यूं
जैसे  घर आए मेहमान हो
बेटियां भी तो मेहमान ही
बन जाती हैं तभी तो
पराया धन कहलाती हैं
आयेगा एक हवा का झोंका
र एक दूसरे से कह उठेंगे यूं
अब के बिछड़े  ना जाने
कब मिलेंगे
यदि मिले इस जन्म‎ में तो
बस चन्द लम्हों के लिए
मेहमानों  के तरह मिलेंगे

XXXXX

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

"अजनबी"

बड़े अजनबी होते हैं शहर
हाथ बढ़ा‎ओ तो भी
दोस्ती नही करते बस
अपनी ही झोंक में रहते हैं

गाँव के तो पनघट भी बोलते हैं
कभी कनखियों से
तो कभी मुस्कुरा  के
फुर्सत हो तो हवा के झोकों संग
कभी कभी हाल-चाल भी
पूछ लिया करते हैं

शहरों की बात ही अलग है
अपनी ही धुन में भागे जाते हैं
और तो और…..,
जिस लिफ्ट से हजार बार गुजरो
अजनबी ही रहती है कुछ इमरजेन्सी नम्बरों और
बटनों के साथ बस घूरती .....,
एक खट् की आवाज मानो कह रही हो---
“अब उतर भी जाओ ।”

        XXXXX

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

“शिव स्तुति” (हाइकु)"

जै त्रिपुरारि
जै जै शिव शंकर
भोले भण्डारी

काशी के वासी
जै नीलकंठधर
त्रिनेत्र धारी

जै गंगाधर
प्रकृति के रक्षक
शशि शेखर

गौरी के प्रिय‎
कैलाश अधीश्वर
विष्णु वल्लभ

करें वन्दन
यक्ष, देव, गन्धर्व
जड़- चेतन

भक्त मगन
शिवरात्रि पावन
मन भावन

    xxxxxxx

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

“चाँद"

चाँद निकलता है रात में,
लेकिन कभी कभी‎
यह दिन में भी
दिखता है ।
फर्क बस इतना है
रात वाला चाँद,
धुला धुला सा
निखरा और उजला सा ,
पेड़ों की फुनगियों से झांकता 
दुख में दुखी
और खुशियो में ...., 
"चार चाँद लगाता” 
दिखता है ।
 लेकिन दिन वाला चाँद ,
खून निचुड़ा सा
रूई का सा फाहा
शक्ति हीन और श्री विहीन
हालात का मारा
आम आदमी सा
 दिखता है ।

           xxxxxxx

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

"ताँका"

"पतझड़”

व पल्लव
विकसे तरु शाख
जीर्ण से पात
झरे विटप गात
पतझड़ के बाद

  किसान”

मुँह अँधेरे
किसान चल दिया
खेतो की ओर
जी तोड़ मेहनत
नतीजा मुट्ठी भर
   
xxxxxxx
   

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

"भड़ास"

भौगोलिक परिवेश में
धरती की हलचल ।
अन्दरुनी परतों के
खिसकने का हाल
बयान करती है ।
अन्दर सब कुछ‎ ठीक !!‎
मगर सब ठीक कहाँ होता है ?
धरा  को तो ध्वंस झेलना ही पड़ता है ।
इन्सान की भड़ास भी
वसुन्धरा की इस
हलचल से कम नही ।
जब निकलती है तो
ना जाने कितने ही
तंज और व्यंग उगलती है ।
उगल कर ढेर सारा लावा
खुद हो जाती है  शांत और‎
दूसरों पर मुसीबत बनती है ।
      
         XXXXX