सांसारिकता की किताब में
एक धुरी पर आकर
व्यक्ति की भागम-भाग का
रथ ठहर जाता है
एक पड़ाव पर..,
निवृत्ति की प्रवृत्ति को
परिभाषित करना
थोड़ी टेढ़ी खीर है
क्योंकि..,
समय के रथ का पहिया
तो नहीं रूकता लेकिन
मानव मन
आज और कल के बीच
हिलकोरे खाता..,
आ कर ठहर जाता है
आज की दहलीज़ पर
समय के भँवर में
डूबता उतराता
विरक्ति को भूल अनुरक्ति की ओर
कब प्रवृत्त होता है ..,
उसके स्वयं के अहसासों से
परे की बात है ॥
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-11-22} को "कार्तिक पूर्णिमा-मेला बहुत विशाल" (चर्चा अंक-4606) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सृजन को चर्चा मंच की चर्चा में सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार कामिनी जी !
जवाब देंहटाएंवाह! अच्छा कहा है।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के आपका बहुत बहुत आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक सृजन सखी
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के आपका बहुत बहुत आभार सखी !
हटाएंमूर्छित मानव मन ही ऐसा है कि कठोर आघात से भी विरक्त नहीं होता। स्वीकार कर लेना ही सही है।
जवाब देंहटाएंआपकी स्नेहिल उपस्थिति से सृजन को मान मिला । हृदय से असीम आभार अमृता जी !
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के आपका बहुत बहुत आभार भारती जी !
हटाएंसार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के आपका बहुत बहुत आभार 🙏
जवाब देंहटाएंआपकी यह अभिव्यक्ति मेरा स्वानुभूत सत्य है।
जवाब देंहटाएं“कई बार कुछ पढ़ते हुए लगता है अपने साथ भी ऐसा हुआ था ।” यही जीवन है जितेन्द्र जी ! बहुत बहुत आभार आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु 🙏
हटाएंविरक्ति को भूल अनुरक्ति की ओर.....
जवाब देंहटाएंयही बार बार लौटना कभी कभी जीने का आधार बन जाता है मीना जी।
आपकी सराहना सुखद अनुभूति है मीना जी ! हृदय से असीम आभार । सादर सस्नेह वन्दे !!
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