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रविवार, 9 दिसंबर 2018

"अन्तर्द्वन्द्व" (माहिया)

कुछ तीखी लगती  हैं
लोगों की बातें
लगने पर दुखती हैं

तुम से कुछ कहना है
हो चाहे कुछ भी
बस यूं ही रहना है
चल आगे बढ़ते हैं
करना क्या है अब
बस राह पकड़ते हैं

करनी अपने मन की
सुर  सबका अपना
अपनी अपनी ढफली

कब कितना याद करूँ
उलझन है खुद की
मैं कौन राह गुजरूँ

    ✍️ -------- ✍️

18 टिप्‍पणियां:

  1. माहिया शैली में शानदार अंतरद्वंद्व रचा है आपने मीना जी सुंदर रचना ।

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    उत्तर
    1. आपकी हौसला अफजाई से आभारी हूँ कुसुम जी ।

      हटाएं
  2. स्वागत आपका "मंथन" पर और तहेदिल से आभार हौसला अफजाई के लिए रविन्द्र जी ।

    जवाब देंहटाएं
  3. मन के अंतर्द्वंद को लाजवाब माहिया के शब्दों में बाँधा है ...
    बहुत उत्तम हैं सब ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हौसला अफजाई के लिए तहेदिल से धन्यवाद नासवा जी ।

      हटाएं
  4. वाकई, बड़ा मनोरम अंतर्द्वंद्व है।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुन्दर कई भाव शब्दों से परे होते हैं...

    जवाब देंहटाएं
  6. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-3-22) को "सैकत तीर शिकारा बांधूं"'(चर्चा अंक-4374)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  7. विशेष प्रस्तुति में मेरी रचनाओं का चयन हर्ष और गर्व का विषय है मेरे लिए.., बहुत बहुत आभार कामिनी जी!

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"