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शनिवार, 18 अप्रैल 2020

स्मृतियों के झरोखे से...( 2 )

ओस से गीली दूब सा
रहता है आज कल मन
होते इसके  एक जोड़ी पैर...
तो कब का तोड़ सारे बाँध
पहुँच जाता भोर बेला में
 बन के परदेसी पावणा...
सोने सी भूरी बालू के
 रेतीले धोरों में ..
मिट जाती मन की भूख
जो बैठ जाता टखनों को
दबा के छोटी-छोटी
मरू-लहरियों में…
हथेली से दुलार कर ठंडी रेत
जब अंगुलियाँ उकेरती
कोई अपने का अपना सा नाम…
और दृगें देखती
 बालू का अथाह समन्दर ..
 छिटपुट फोग की झाड़ी...
 चटख फूल संग हँसती
 कोई नागफनी…
दूर से खोज-खबर
लेता खेजड़ी...
उसकी पत्तियों को टूंगने की
फ़िराक़ में बकरी का बच्चा..
 तिनका चोंच में दाबे गौरैया..
तो यकीन मानों…
भूरी सैकत सी आँखों में
सिमट आता
सारा का सारा थार …
खारे पानी की नमी सा
उन कोयों के इर्द -गिर्द !!!

★★★★★






24 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शब्द -सृजन चर्चा के लिए रचना चयन हेतु हार्दिक आभार
      कामिनी जी !

      हटाएं
  2. ओस से गीली दूब सा
    रहता है आज कल मन
    होते इसके एक जोड़ी पैर...
    तो कब का तोड़ सारे बाँध
    पहुँच जाता भोर बेला में
    बन के परदेसी पावणा...
    सोने सी भूरी बालू के
    रेतीले धोरों में ..वाह !दी लाजवाब 👌👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए स्नेहिल आभार
      अनीता जी !

      हटाएं
  3. लोक बोलों का सुन्दर प्रयोग देखने को मिला
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी अनमोल सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ...हृदयतल से आभार कविता जी ।

      हटाएं
  4. वाह!!!
    अद्भुत शब्दसंयोजन के साथ शानदार विम्ब
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली.
      हृदय से असीम आभार सुधा जी .

      हटाएं
  5. निःशब्द हूँ आपकी रचना पढ़ कर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मान भरी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ अनीता सुधीर जी ।

      हटाएं
  6. ओस की भीगी डूब से उपजती स्मृतियों से रची रचना ...
    बहुत सुन्दर ...

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह , प्रिय मीना जी! एक मन दुनियादारी जीता, तो एक मन अपने भीतर यादों के गाँव के कण कण से लिपटता , अपने भीतर ही बीते पल जीता हुआ | शायद यही हरेक संवेदशील मन की हकीकत है , क्योकि कोई भी वैभव और सुख आराम उसे अपनी माटी से अनुराग करने पर रोक नहीं लगा पाता| मार्मिक अभिव्यक्ति जो मन तरल कर जाती है \ सस्नेह -

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना का मान बढ़ाती अनमोल प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली । हृदय के मर्म तक पहुँचने के लिए बहुत बहुत आभार प्रिय रेणु बहन! सस्नेह..

      हटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"