Copyright

Copyright © 2025 "मंथन"(https://www.shubhrvastravita.com) .All rights reserved.

सोमवार, 21 जुलाई 2025

“सफ़र”

सुख दुख का साझी 

समय -घट 

परछाई सा जीवन में

चलता रहा मेरे साथ 


समय के साथ

पीछे रह गईं स्वाभाविक 

प्रवृतियाँ..,

अंक में जुड़ते गए मौन और धैर्य 


मेरे भीतर का अनुभूत

 समय..,

दरिया बन बहता गया

सृजनात्मकता में


अक्षरांकन की इस यात्रा में

मेरा वजूद 

कई बार रोया कई बार मुस्कुराया 


काग़ज़ और कलम की

यायावरी में 

कई पड़ावों के बाद जैसे मैंने 

ख़ुद को खो कर खुद को पाया 


***


शनिवार, 12 जुलाई 2025

“परिवर्तन”

स्वयं की खोज का सफ़र 

अकेले ही 

तय करता है इन्सान 

 

अपने अंतस् में उतर कर

पहचान पाते हैं हम 

अनुभूत जीवन का सच


बाहर-भीतर,पास-दूर  

भ्रम है दृष्टि का


कई बार बहुत कुछ 

समझने के बाद भी 

बहुत कुछ 

छूट जाता है समझ के लिए


चिराग़ तले अँधेरा है 

यह बात भला..,

चिराग़ को भी कहाँ पता होती है 


समय का स्पर्श 

साँचें में ढालता है सबको

परिवर्तन ..

हलचल पैदा करने के साथ 

कुछ नया भी रचता है 


***

 

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

पत्तियाँ चिनार की (अंतस् की चेतना)


बिखरी कड़ियों को समेटने की श्रृंखला में पत्तियाँ चिनार की (अंतस् की चेतना) मेरा तीसरा  पद्य-संग्रह ,जिसमें सौ-सौ की संख्या में क्षणिकाएँ,त्रिवेणी एवं हाइकु संग्रहित हैं प्रकाशित हुआ है । ब्लॉगिंग संसार के  विज्ञजनों के साथ मेरी बौद्धिक यात्रा का पथ सुखद और सार्थक रहा, इसके लिए  हृदय की असीम गहराइयों के साथ ब्लॉगिंग संसार के सभी साथियों का  आभार एवं धन्यवाद व्यक्त करती हूँ ।प्रकाशित पुस्तक पत्तियाँ चिनार की (अंतस् की चेतना) के कुछ 

अंश -

“क्षणिका”


तिहाई का शिखर छू कर बनना तो था

शतकवीर ..,

मगर  वक़्त का भरोसा कहाँ था ?

कठिन रहा यह सफ़र …,

“निन्यानवें के फेर में आकर चूक जाने की”

बातें बहुत सुनी थीं ।

🍁


“त्रिवेणी”


अच्छा लगता है मुझे सागर तट पर देर तक बैठना

लहरों के शोर और सागर की गर्जन से तादात्म्य रखना.., 


 बाहर-भीतर की साम्यता मेरे भीतर तटस्थता भरती है ।

🍁


“हाइकु”


गोधूलि बेला -

घोंसले में लौटता

पक्षी का जोड़ा ।

🍁


“मीना भारद्वाज”


शनिवार, 14 जून 2025

“त्रिवेणी”


मंजिल की खोज की धुन में

निकल पड़ा सफ़र पर ज़िद्दी मन


इतना निकला आगे कि अब खुद की तलाश में है ।



***

बुधवार, 14 मई 2025

“स्मृति-मंजूषा”

 

आज की पोस्ट मेरे लिए कई मायनों में विशेष है औपचारिकताओं से हट कर अपनी बात रखने के लिए, अपनी कल्पना के यथार्थ रूप  “स्मृति-मंजूषा” से आप सभी विद्वजनों का परिचय करवाने के लिए ।

        लिखने -पढ़ने का रूझान मुझ में  बचपन से ही प्रगाढ़ रहा।शब्दों की दुनिया जीवन में सच्ची साथी बन सदा ही परछाई बन कर मेरे साथ चली जिन्हें मैंने कभी साँचे में ढाल कर साकार करने का प्रयास किया तो कभी अवचेतन मन के साथ अपना अविभाज्य बना लिया ॥

        स्कूल में शिक्षण के दौरान “स्कूल-पत्रिका” के संपादक मण्डल में काम करते हुए  कभी सोचा नहीं था कि मैं कभी अपनी पुस्तक के प्रकाशन के बारे में सोचूँगी लेकिन लेखन जगत से जुड़ने के बाद मैंने ऐसा सोचा भी और किया भी । मेरे आरम्भिक लेखन के संकलन को मैंने “निहारिका” के रूप मे संजोया जिसके हाथ में आने के बाद लगा कि गद्य और पद्य साथ न होकर अलग-अलग होना  ज़रूरी  था ।स्कूल पत्रिका की बात और थी  और अपने एकल संग्रह  की बात  और .., ,और इसके बाद एकल संग्रह के प्रकाशन के विचार को लगभग छोड़ सा दिया । 

                   मगर कहते हैं ना कि " साँझ के सूरज को देख पाखी भी अपने आप को समेट नीड़ की तरफ लौटने लगते हैं।” वैसे ही मेरे  मन में भी ख्याल आया कि अपने लिखे को समेट कर पुस्तक के रूप में साकार करने का समय आ गया है ।अपने पढ़ने की किताबों की आलमारी में अपने लिखे का भी स्थान तो बनता ही है,   इसी सोच के साथ अपने ब्लॉग “मंथन” की पिटारी से रचनाओं  के मोती चुन कर  अपनी डिजिटल  डायरी में संकलित कर उसको  13 जुलाई 2019 को पोस्ट   अपनी एक कविता के शीर्षक पर नाम दिया “स्मृति-मंजूषा”!!  अप्रकाशित संकलन के बाद भी काफी काम थे जिससे  प्रूफ़ रीडिंग और प्रकाशन से संबंधित काम जिसको तय करना समय ले रहा था । 

                    तभी एक दिन अपने साझा काव्य संकलन “काव्य-रश्मियाँ” को पढ़ते हुए आदरणीय भाई श्री रवीन्द्र सिंह जी यादव के साथ पुस्तक प्रकाशित होने से पूर्व की चर्चाएँ याद हो आईं ।  उसी समय बने ग्रुप से उनका नम्बर लिया और पुस्तक प्रकाशन के सन्दर्भ में उनसे बात की ।        

          इस पुस्तक को भाषिक सौंदर्य और प्रस्तुति की दृष्टि से सँवारने में आदरणीय भाई श्री रवीन्द्र सिंह जी यादव के योगदान के प्रति मैं कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ उनकी गहन साहित्यिक दृष्टि, सूक्ष्म प्रूफ रीडिंग और सटीक संपादन के साथ लिखी  भूमिका ने इस पुस्तक को एक परिष्कृत रूप प्रदान किया है ।

     अपनी व्यस्त दिनचर्या से पुस्तक प्रकाशन में अपना अमूल्य समय, सहयोग और निर्देशन देने हेतु मैं हृदय से उनका असीम आभार व्यक्त करती हूँ । 


                                          ***

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

“कह मुकरियाँ”

 



भोर हुए तो आंगन महके

उसके बिन सब बहके-बहके

बिन उसके दृग बोझिल हाय !

क्या सखी धूप ? ना सखी चाय ।।


इधर-उधर डरता सा तांके ,

मेरे अंगना निशदिन झांके।

सुन्दरता उसकी चित्त चोर ,

क्या सखी साजन? ना सखी मोर ।


वो आए कुदरत हर्षाये

नभ में घोर घटाएँ छाएं

मधुर -मधुर उसमें मादकता

क्या सखी महुवा ? ना सखी पुरवा ।


***





गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

“क्षणिकाएँ”

वक्त की शाख़ पर

 लदे खट्टे-मीठे फलों सरीखे 

अनुभवों को 

चिड़िया के चुग्गे सा

अनवरत 

चुनता रहता है इन्सान 

इसी का नाम ज़िंदगी है 


***


सोच के बिंदु न मिले तो

रहने दो स्वतन्त्र 

उस राह पर चलने का

भला क्या सार

जो गंतव्य की जगह चौराहे पर

जा कर ख़त्म हो जाए 


***