मंजिल की खोज की धुन में
निकल पड़ा सफ़र पर ज़िद्दी मन
इतना निकला आगे कि अब खुद की तलाश में है ।
मंजिल की खोज की धुन में
निकल पड़ा सफ़र पर ज़िद्दी मन
इतना निकला आगे कि अब खुद की तलाश में है ।
आज की पोस्ट मेरे लिए कई मायनों में विशेष है औपचारिकताओं से हट कर अपनी बात रखने के लिए, अपनी कल्पना के यथार्थ रूप “स्मृति-मंजूषा” से आप सभी विद्वजनों का परिचय करवाने के लिए ।
लिखने -पढ़ने का रूझान मुझ में बचपन से ही प्रगाढ़ रहा।शब्दों की दुनिया जीवन में सच्ची साथी बन सदा ही परछाई बन कर मेरे साथ चली जिन्हें मैंने कभी साँचे में ढाल कर साकार करने का प्रयास किया तो कभी अवचेतन मन के साथ अपना अविभाज्य बना लिया ॥
स्कूल में शिक्षण के दौरान “स्कूल-पत्रिका” के संपादक मण्डल में काम करते हुए कभी सोचा नहीं था कि मैं कभी अपनी पुस्तक के प्रकाशन के बारे में सोचूँगी लेकिन लेखन जगत से जुड़ने के बाद मैंने ऐसा सोचा भी और किया भी । मेरे आरम्भिक लेखन के संकलन को मैंने “निहारिका” के रूप मे संजोया जिसके हाथ में आने के बाद लगा कि गद्य और पद्य साथ न होकर अलग-अलग होना ज़रूरी था ।स्कूल पत्रिका की बात और थी और अपने एकल संग्रह की बात और .., ,और इसके बाद एकल संग्रह के प्रकाशन के विचार को लगभग छोड़ सा दिया ।
मगर कहते हैं ना कि " साँझ के सूरज को देख पाखी भी अपने आप को समेट नीड़ की तरफ लौटने लगते हैं।” वैसे ही मेरे मन में भी ख्याल आया कि अपने लिखे को समेट कर पुस्तक के रूप में साकार करने का समय आ गया है ।अपने पढ़ने की किताबों की आलमारी में अपने लिखे का भी स्थान तो बनता ही है, इसी सोच के साथ अपने ब्लॉग “मंथन” की पिटारी से रचनाओं के मोती चुन कर अपनी डिजिटल डायरी में संकलित कर उसको 13 जुलाई 2019 को पोस्ट अपनी एक कविता के शीर्षक पर नाम दिया “स्मृति-मंजूषा”!! अप्रकाशित संकलन के बाद भी काफी काम थे जिससे प्रूफ़ रीडिंग और प्रकाशन से संबंधित काम जिसको तय करना समय ले रहा था ।
तभी एक दिन अपने साझा काव्य संकलन “काव्य-रश्मियाँ” को पढ़ते हुए आदरणीय भाई श्री रवीन्द्र सिंह जी यादव के साथ पुस्तक प्रकाशित होने से पूर्व की चर्चाएँ याद हो आईं । उसी समय बने ग्रुप से उनका नम्बर लिया और पुस्तक प्रकाशन के सन्दर्भ में उनसे बात की ।
इस पुस्तक को भाषिक सौंदर्य और प्रस्तुति की दृष्टि से सँवारने में आदरणीय भाई श्री रवीन्द्र सिंह जी यादव के योगदान के प्रति मैं कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ उनकी गहन साहित्यिक दृष्टि, सूक्ष्म प्रूफ रीडिंग और सटीक संपादन के साथ लिखी भूमिका ने इस पुस्तक को एक परिष्कृत रूप प्रदान किया है ।
अपनी व्यस्त दिनचर्या से पुस्तक प्रकाशन में अपना अमूल्य समय, सहयोग और निर्देशन देने हेतु मैं हृदय से उनका असीम आभार व्यक्त करती हूँ ।
भोर हुए तो आंगन महके
उसके बिन सब बहके-बहके
बिन उसके दृग बोझिल हाय !
क्या सखी धूप ? ना सखी चाय ।।
इधर-उधर डरता सा तांके ,
मेरे अंगना निशदिन झांके।
सुन्दरता उसकी चित्त चोर ,
क्या सखी साजन? ना सखी मोर ।
वो आए कुदरत हर्षाये
नभ में घोर घटाएँ छाएं
मधुर -मधुर उसमें मादकता
क्या सखी महुवा ? ना सखी पुरवा ।
***
वक्त की शाख़ पर
लदे खट्टे-मीठे फलों सरीखे
अनुभवों को
चिड़िया के चुग्गे सा
अनवरत
चुनता रहता है इन्सान
इसी का नाम ज़िंदगी है
***
सोच के बिंदु न मिले तो
रहने दो स्वतन्त्र
उस राह पर चलने का
भला क्या सार
जो गंतव्य की जगह चौराहे पर
जा कर ख़त्म हो जाए
***
घाटी में…
बर्फ से ढके मौन खड़े हैं
देवदार
हवा की सरसराहट से
काँपती कोई पत्ती
जब हो जाती है बर्फ विहीन
तो सजग हो उठता है पूरा पेड़
ऊपरी सतह की पत्तियाँ
साझा कर लेती हैं
तुषार कण
साझा सुख-दुख संजीवनी है
परिवार की
***
समझ से परे है जीवन दर्शन की बातें
बहुत बार .,,
अच्छा समय, अच्छे अनुभव, अच्छी बातें
ब्लैक-बोर्ड पर लिखे
संदेश की तरह हो जाती हैं वाइप आउट
लेकिन समस्या तब
सुरसा सरीखा मुँह खोल देती है
जब हज़ार झंझटों के बाद भी
दर्द की बातें ..
चिपकी रह जाती है मन की दीवारों पर
उखड़े पलस्तर की मानिंद
***
मृगतृष्णा का आभास
अथाह बालू के समन्दर में ही नहीं होता
कभी-कभी हाइवे की सड़क पर
चिलचिलाती धूप में भी
दिख जाता है बिखरा हुआ पानी
बस…,
मन में प्यास की ललक होनी चाहिए
***
ज़िन्दगी !
तुझसे नेमत में मिले हर दर्द को मैंने
तपती रेत के सागर में..,
सूखे कण्ठ में पानी की एक बूँद सा पिया है
तुम्हारी दी हर साँस को मैंने
जी भर कर..,
नवजात शिशु समान हर पल
पहली साँस सा लिया है
कई बार जीती हूँ , कई बार हारी हूँ
जीत-हार की जंग में..,
न अपनों से शिकवा न ग़ैरों से गिला है
मिली है तू पहली बार या आख़िरी बार
इस बात को कर दरकिनार
तुम्हें इस बार मैंने ..,
पूरी शिद्दत के साथ जीया है
***