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मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

“कह मुकरियाँ”

 



भोर हुए तो आंगन महके

उसके बिन सब बहके-बहके

बिन उसके दृग बोझिल हाय !

क्या सखी धूप ? ना सखी चाय ।।


इधर-उधर डरता सा तांके ,

मेरे अंगना निशदिन झांके।

सुन्दरता उसकी चित्त चोर ,

क्या सखी साजन? ना सखी मोर ।


वो आए कुदरत हर्षाये

नभ में घोर घटाएँ छाएं

मधुर -मधुर उसमें मादकता

क्या सखी महुवा ? ना सखी पुरवा ।


***





गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

“क्षणिकाएँ”

वक्त की शाख़ पर

 लदे खट्टे-मीठे फलों सरीखे 

अनुभवों को 

चिड़िया के चुग्गे सा

अनवरत 

चुनता रहता है इन्सान 

इसी का नाम ज़िंदगी है 


***


सोच के बिंदु न मिले तो

रहने दो स्वतन्त्र 

उस राह पर चलने का

भला क्या सार

जो गंतव्य की जगह चौराहे पर

जा कर ख़त्म हो जाए 


***



मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

“परिवार”

घाटी में…

बर्फ से ढके मौन खड़े हैं 

देवदार

हवा की सरसराहट से 

काँपती कोई पत्ती 

जब हो जाती है बर्फ विहीन 

तो सजग हो उठता है पूरा पेड़ 

ऊपरी सतह की पत्तियाँ 

साझा कर लेती हैं 

तुषार कण 

साझा सुख-दुख संजीवनी है 

परिवार की


***