बहुत सारे किन्तु-परन्तुओं के
सानिध्य में
नैसर्गिक विकास अवरूद्ध
हो जाया करता है
वैचारिक दृष्टिकोण में अनावश्यक हस्तक्षेप
चिंतन के दायरों में
सिकुड़न भर देता है और विचार
न चाहते हुए भी
पेड़ की शाख से टूटे पत्तों के समान
अपना अस्तित्व खो बैठते हैं
***