समय निर्बाध
तय करता रहा अपनी यात्रा
और..,
जीवन आकंठ डूबा रहा अपनी आपाधापी में
जी लेंगे अपनी जिन्दगी भी
फुर्सत मिलने पर…,
जैसे जीवन साल भर की
कतर-ब्योंत का बजट हो
आम आदमी की सोच यही तो रहती है
लेकिन…
समय की गति कहाँ रूकती है सोचों के मुताबिक़
वक्त मिलने तक ..,
वक्त के दरिया में बह जाता है
न जाने कितना ही पानी
सांसारिकता कब समझ पाती है
सृष्टि के नियम
सिक्के की पहलुओं की तरह बँधे हैं
समय और जीवन
समय पर न साधने पर फिसल जाते हैं
रेत की कणों जैसे बन्द मुट्ठी से ।
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