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रविवार, 12 अक्टूबर 2025

“गर्भनाल”


दिन की गठरी से चुरा कर 

थोड़ा सा समय..,

अपने लिए रखने की आदत 

एक गर्भनाल से

 बाँध कर रखती रही है 

 हमें..,

जब से तुम्हारे समय की गठरी की

 गाँठ खुली है 

हम एक-दूसरे के लिए अजनबी

 से हो गए हैं

 पलट कर देखने पर हमारा 

जुड़ाव …,

बीते जमाने की

बात सा लगने लगा है 



***



बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

“मनःस्थिति”

बीमार सा रहने लगा है 

मन अब ..,

बन्द कर लिए इसने अपने वजूद के

खिड़की-दरवाज़े..,

हवा की छुवन भी अब 

ताजगी की जगह सिहरन सी

भरने लगी है

जानती हूँ ऐसा ही रहा तो

एक दिन…

यह धीरे-धीरे यूँ ही मर जाएगा

अभिव्यक्ति ख़ामोश हो जाएगी 

और..,

बहुत सारी बातें किसी शेल्फ़ में रखे 

सामान की तरह 

गर्द की परतों तले दब कर

समय के साथ 

अर्थहीन होती चली जाएँगी।

***