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रविवार, 1 नवंबर 2020

"उम्र भर की तलाश"

                              

उम्र भर की तलाश

अपना घर..

कितनी बार कहा-

ओ पागल!

यह तेरा अपना ही घर है

हक जताना तो सीख

समझती कहाँ है

समझ का दायरा बढ़ा

तभी से..

दादा का घर..नाना का घर..

उनकी जगह

पापा और मामा ने  ली

ब्याह के बाद

श्वसुर और पति ने..

अपना तो कभी 

कुछ हुआ नहीं

पहली बार जब उसने

 लाड़ से कहा-

यह तेरा अपना घर..

तेरी मेहनत का फल

 तब से किंकर्तव्यविमूढ़

 सी खड़ी है

अधिकार जताने की

किताब कभी पढ़ी नहीं

और न ही मिली कभी सीख 

बस एक जिद्द थी

मेरा क्यों नहीं..

पीढिय़ों से लड़ रही है

निजता की खातिर

आज यहाँ.. कल वहाँ

और अब..

अधिकार भाव

के शस्त्र को उसने

स्वेच्छा से रख दिया

एक कोने में...

गाड़िया लुहारों की मानिंद

***







29 टिप्‍पणियां:

  1. मन की बात लिखी है आपने इस कविता के माध्यम से। बेहतरीन 👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना सम्पन्न त्वरित प्रतिक्रिया के लिए हृदय से बहुत बहुत आभार शिवम् जी .

      हटाएं

  2. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    02/11/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......


    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना को पांच लिंकों का आनंद में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार कुलदीप ठाकुर जी ।

      हटाएं
  3. अधिकार भाव
    के शस्त्र को उसने
    स्वेच्छा से रख दिया
    एक कोने में...
    गाड़िया लुहारों की मानिंद
    सच, गाड़िया लुहारों की तरह ही तो है स्त्रियों की जिंदगी.... पर आज स्त्री अपने उस शस्त्र को खोज रही है जो स्वेच्छा से रख दिया था उसने किसी कोने में !
    सार्थक अभिव्यक्ति मीना जी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी व्याख्यायित प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता और मान मिला। सस्नेह हार्दिक आभार मीना जी!

      हटाएं
  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. "सांध्य दैनिक मुखरित मौन" में मेरी रचना को साझा करने के लिए हार्दिक आभार दिव्या जी!

      हटाएं
  5. उत्तर
    1. रचना के मर्म को स्पष्ट करती प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली । सादर आभार सर ।

      हटाएं
  6. जिस विषय को आपने कविता के माध्यम से रेखांकित किया है, वो भारतीय समाज की सबसे दुःखदायी बिंदु है, जहाँ एक महिला अपना सर्वस्व देने के बाद भी निर्वासित होती है क्योंकि उसका ख़ुद का कोई घर नहीं होता, मैं अपनी विवाहिता इंजिनियर बेटी से हमेशा कहता हूँ कि ज़िन्दगी में ख़ुद के नाम का घर ज़रूर ख़रीदना और दो पैसे ज़रूर ज़मा करना - - लेकिन सब भाग्य की बात है, समाज को इस विषय पर ज़रूर सोचना चाहिए - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी बहुत बहुत आभार मेरे नजरिए को सहमति भरा मान देने के लिए...आपकी स्नेहिल ख्वाहिश जरूर पूरी हो 🙏🙏

      हटाएं
  7. मन को छूती बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।क्या कहूँ कहने में असमर्थ हूँ बहुत सी औरतों की पीड़ा ने घेर लिया है।ख़ुद का कहना स्वार्थ होगा।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपका सस्नेह आभार अनीता!वे बहुत सी औरतें जो आज भी इस पीड़ा में हैं वे सजग हो..अपने लिए प्रेरित हो ..दिल से यही अभिलाषा है ताकि समाज में समरसता का भाव बने।

      हटाएं
  8. हमारी पीढ़ी की उन नारियों को जिन्हें अपना मान-स्वाभिमान समझ में आने लगा था उन्हें छत की इस पीड़ा की अनुभूति ज्यादा हुई... नयी पीढ़ी की नारी ज्यादा सचेत हैं क्योंकि वे ज्यादा स्वालम्बी हैं अतः अब छत की चिंता कम करने की आवश्यकता है.... बल्कि अब रिश्तों में विश्वास की कमी ज्यादा पायी जा रही है..

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीया दी 🙏 आपका चिंतन यथार्थ के धरातल पर गहराई लिए है। नई पीढ़ी के लिए एक मोर्चा और बढ़ गया है जिसका संकेत भी किया है आपने। आपकी प्रतिक्रिया ने सृजन का मान बढ़ाया । पुनः बहुत बहुत आभार दी🙏

      हटाएं
  9. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार 3-11-2020 ) को "बचा लो पर्यावरण" (चर्चा अंक- 3874 ) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रविष्टि के लिंक को चर्चा में सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार कामिनी जी ।

      हटाएं
  10. पहली बार जब उसने

    लाड़ से कहा-

    यह तेरा अपना घर..

    तेरी मेहनत का फल

    तब से किंकर्तव्यविमूढ़

    सी खड़ी है.... बेहद हृदयस्पर्शी रचना मीना जी।

    जवाब देंहटाएं
  11. स्वयं की शक्ति को कमतर आंकने का अभिशाप स्वयं के लिए ?

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    उत्तर
    1. महिला वर्ग की कई बार अनदेखी और उपेक्षित रवैये के कारण हृदय व्यथित हो जाता है अमृता जी । बहुत बहुत आभार आपके सशक्त हस्ताक्षर के लिए ।

      हटाएं
  12. स्त्री की पीड़ा को मुखरित करने हेतु बधाई 💐🍁💐

    बहुत अच्छी कविता मीना जी 🙏
    स्नेह सहित,
    - डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी सुन्दर सी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया ने मेरा मनोबल संवर्द्धन कर लेखनी का मान बढ़ाया..हार्दिक आभार वर्षा जी.🙏🙏

      हटाएं
  13. हृदयस्पर्शी कविता... सही कहा आपने... अपना अक्सर होता ही कहा हैं...

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"