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शनिवार, 15 मई 2021

"प्रश्न"

काम से कभी कोई,

 थकता  कहाँ था  ।

उलझनों से दौर से,

डरता कहाँ था   ।।


सांसों से बंधे हैं, 

सबके जीवन- सूत्र ।

आज जो मंजर है कल 

 सोचा कहाँ था ।।


जीत में जश्न क्या,

हार पर विमर्श क्या ?

जीव तो जीव ही था, 

 आकड़ा कहाँ था  ।।


 अपने में खोया ,

कुछ जागा कुछ सोया ।

 पहले मन कभी इतना 

अकेला कहाँ था ।।


 रेत के सागर से रखी

 मीठे जल सी चाह। 

  दुनिया में  मुझसा नासमझ

कोई दूसरा कहाँ था ।।


***

30 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सराहना भरी प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । सहृदय आभार अनीता जी ।

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  2. ऐसे ही सब ही तो नासमझ थे । कहाँ सोच था कि ऐसा मंज़र भी देखना पड़ेगा ।
    मन के भावों की सुंदर अभिव्यक्ति ।

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    उत्तर
    1. आपकी सराहना सम्पन्न टिप्पणी ने लेखन का मान बढ़ाते हुए उत्साहवर्धन किया । हार्दिक आभार आ.संगीता जी🙏

      हटाएं
  3. उत्तर
    1. सराहना भरी टिप्पणी के लिए सहृदयता आभार शिवम् जी।

      हटाएं
  4. बहुत अच्छी कविता है यह आपकी मीना जी। नासमझ तो हम सभी हैं (या बन गए हैं)। क्या किया जाए, वक़्त और माहौल ही ऐसा है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सत्य कथन जितेन्द्र जी । हृदय से आभार सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु ।

      हटाएं
  5. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (17-05-2021 ) को 'मैं नित्य-नियम से चलता हूँ' (चर्चा अंक 4068) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

    जवाब देंहटाएं
  6. चर्चा मंच की प्रस्तुति में सृजन को सम्मिलित करने हेतु सादर आभार रवीन्द्र सिंह जी।

    जवाब देंहटाएं
  7. उत्तर
    1. सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार सर।

      हटाएं
  8. अपने में खोया ,
    कुछ जागा कुछ सोया ।
    पहले मन कभी इतना
    अकेला कहाँ था ।।


    बहुत सुन्दर सृजन.....

    जवाब देंहटाएं
  9. अपने में खोया ,
    कुछ जागा कुछ सोया ।
    पहले मन कभी इतना
    अकेला कहाँ था ।।
    बहुत ही सटीक रचना आज के हालात ऐसे ही हैं कुछ कहा नहीं जा सकता किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि आज जो वर्तमान स्थिति हैं ऐसे हालात भी हम लोगों को देखना पड़ेगा ऊपर वाले से बस अब इतनी ही दुआ है कि अब रहम कर हम लोगों पर आद. मीना जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी सर्वकल्याण के भावों से सजी शुभेच्छा सम्पन्न टिप्पणी के लिए सहृदय आभार सवाई सिंह राजपुरोहित जी।ईश्वर से प्रार्थना है कि हम सबकी कोरोना आपदा से रक्षा करेंं 🙏

      हटाएं
  10. रेत के सागर से रखी

     मीठे जल सी चाह। 

      दुनिया में  मुझसा नासमझ

    कोई दूसरा कहाँ था ।।



    बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार त्मनोज जी ।

      हटाएं
  11. कोरोना ने हमें ये सोचने परबाध्‍य करद‍िया है कि‍ "सांसों से बंधे हैं,

    सबके जीवन- सूत्र ।

    आज जो मंजर है कल

    सोचा कहाँ था ।।



    जीत में जश्न क्या,

    हार पर विमर्श क्या ?

    जीव तो जीव ही था,

    आकड़ा कहाँ था ।।

    वाह दार्शन‍िक अंदाज़ में पूरा सार ल‍िख द‍िया

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय से आभार सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु अलकनंदा जी।

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  12. लाजबाव रचना दर्शन शास्त्र की गहराई की तरह

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    उत्तर
    1. सराहना भरी प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार भारती जी।

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  13. रात जरूर बहुत ही अंधियारी है पर सुबह तो होगी ही

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  14. जी सर! उसी की उम्मीद है । आपके उत्साहवर्धन हेतु सादर आभार ।

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  15. अपने में खोया ,/कुछ जागा कुछ सोया ।/पहले मन कभी इतना /अकेला कहाँ था ।।///
    रेत के सागर से रखी/ मीठे जल सी चाह। / दुनिया में मुझसा नासमझ /कोई दूसरा कहाँ था ।।///
    बहुत ही शानदार से अंदाजेबयां है मीना जी | प्रभावी तरीके से बात कही है आपने | आज के दौर को देखकर तो मन ग्लानी भाव से भर जाता है |काश ये दिन दुबारा कभी देखने में ना आयें |

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    उत्तर
    1. सही कहा आपने रेणु जी । काश ये दिन दुबारा कभी देखने में ना आयें | बहुत तकलीफ होती है कोरोना की भयावहता से ।

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  16. कोरोना का दर्द शारीरिक मानसिक हर तरह से तोड़ देता है,दहशत भरे दिन और रातें वीरान हो जाती हैं । यथार्थपूर्ण सृजन के लिए बधाई आपको मीना जी ।

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  17. सृजन को सार्थकता प्रदान करती सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार जिज्ञासा जी ।

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  18. बहुत खूब ...
    भाव होकर भी भाव रहित रहना ... जो है उसे सहज लेना ... जीवन की रीत को अपनाना ही तो है ...

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    उत्तर
    1. सत्य कथन नासवा जी । आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ।
      हार्दिक आभार आपका ।

      हटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"