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सोमवार, 1 सितंबर 2025

“सीमाएँ”

 बहुत सारे किन्तु-परन्तुओं के 

सानिध्य में

नैसर्गिक विकास अवरूद्ध 

हो जाया करता है 

वैचारिक दृष्टिकोण में अनावश्यक हस्तक्षेप

 चिंतन के दायरों में 

सिकुड़न भर देता है और विचार 

न चाहते हुए भी 

पेड़ की शाख से टूटे पत्तों के समान 

 अपना अस्तित्व खो बैठते हैं 


***


24 टिप्‍पणियां:

  1. अक्सर रिश्ते अपने खुद से भी यही आकर उलझ जाते है ।

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  2. हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार प्रिया जी !

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  3. वैचारिक दृष्टिकोण में अनावश्यक हस्तक्षेप

    चिंतन के दायरों में

    सिकुड़न भर देता है ......


    अनुपम , दीदी जी

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  4. सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार अनुज!

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  5. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 06 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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    1. “पांच लिंकों का आनन्द” में सृजन सम्मिलित करने हेतु सादर नमस्कार सहित सादर आभार आदरणीया यशोदा जी !

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  6. उत्तर
    1. सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार हरीश जी !

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  7. बहुत सटीक एवं सारगर्भित...
    लाजवाब सृजन ।

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    1. सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार सुधा जी !

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  8. उत्तर
    1. सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार सर !

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  9. उत्तर
    1. सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार सर !

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  10. वाह ... पर इस किन्तु परन्तु से निकलना आसान कहाँ होता है ...

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    1. सत्य वचन 🙏 यही अवरोध तो लक्ष्य का मार्ग कठिन करते हैं ।

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  11. बहुत बहुत आभार सहित सादर नमस्कार नासवा जी ।

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  12. उत्तर
    1. सुन्दर प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार एवं सादर नमस्कार !

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  13. आपकी ये पंक्तियाँ पढ़कर लगा जैसे किसी ने सोच पर लगी बेड़ियों को सीधे सामने रख दिया हो। सच में, जब हर विचार पर “किन्तु-परन्तु” थोप दिए जाते हैं, तो सोच का फैलाव रुक जाता है। मुझे तुम्हारा पत्तों वाला रूपक बहुत अच्छा लगा—क्योंकि सच तो यही है, दबे हुए विचार धीरे-धीरे शाख से टूटकर बिखर जाते हैं।

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    1. आपकी उत्साहवर्धन करती और सृजन के मर्म को उजागर करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार 🙏 सादर नमस्कार 🙏

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  14. आपकी ये पंक्तियाँ पढ़कर लगा जैसे किसी ने सोच पर लगी बेड़ियों को सीधे सामने रख दिया हो। सच में, जब हर विचार पर “किन्तु-परन्तु” थोप दिए जाते हैं, तो सोच का फैलाव रुक जाता है। मुझे तुम्हारा पत्तों वाला रूपक बहुत अच्छा लगा—क्योंकि सच तो यही है, दबे हुए विचार धीरे-धीरे शाख से टूटकर बिखर जाते हैं।

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    उत्तर
    1. आपकी उत्साहवर्धन करती और सृजन के मर्म को उजागर करती प्रतिक्रिया के लिए सादर नमस्कार सहित हृदय से असीम आभार 🙏

      हटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"