बहुत सारे किन्तु-परन्तुओं के
सानिध्य में
नैसर्गिक विकास अवरूद्ध
हो जाया करता है
वैचारिक दृष्टिकोण में अनावश्यक हस्तक्षेप
चिंतन के दायरों में
सिकुड़न भर देता है और विचार
न चाहते हुए भी
पेड़ की शाख से टूटे पत्तों के समान
अपना अस्तित्व खो बैठते हैं
***
अक्सर रिश्ते अपने खुद से भी यही आकर उलझ जाते है ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार प्रिया जी !
जवाब देंहटाएंवैचारिक दृष्टिकोण में अनावश्यक हस्तक्षेप
जवाब देंहटाएंचिंतन के दायरों में
सिकुड़न भर देता है ......
अनुपम , दीदी जी
सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार अनुज!
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 06 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं“पांच लिंकों का आनन्द” में सृजन सम्मिलित करने हेतु सादर नमस्कार सहित सादर आभार आदरणीया यशोदा जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार हरीश जी !
हटाएंबहुत सटीक एवं सारगर्भित...
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन ।
सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार सुधा जी !
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार सर !
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सहित सादर नमस्कार सर !
हटाएंवाह ... पर इस किन्तु परन्तु से निकलना आसान कहाँ होता है ...
जवाब देंहटाएंसत्य वचन 🙏 यही अवरोध तो लक्ष्य का मार्ग कठिन करते हैं ।
हटाएंबढ़िया लिखा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार सहित सादर नमस्कार नासवा जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog
सुन्दर प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार एवं सादर नमस्कार !
हटाएंआपकी ये पंक्तियाँ पढ़कर लगा जैसे किसी ने सोच पर लगी बेड़ियों को सीधे सामने रख दिया हो। सच में, जब हर विचार पर “किन्तु-परन्तु” थोप दिए जाते हैं, तो सोच का फैलाव रुक जाता है। मुझे तुम्हारा पत्तों वाला रूपक बहुत अच्छा लगा—क्योंकि सच तो यही है, दबे हुए विचार धीरे-धीरे शाख से टूटकर बिखर जाते हैं।
जवाब देंहटाएंआपकी उत्साहवर्धन करती और सृजन के मर्म को उजागर करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार 🙏 सादर नमस्कार 🙏
हटाएंआपकी ये पंक्तियाँ पढ़कर लगा जैसे किसी ने सोच पर लगी बेड़ियों को सीधे सामने रख दिया हो। सच में, जब हर विचार पर “किन्तु-परन्तु” थोप दिए जाते हैं, तो सोच का फैलाव रुक जाता है। मुझे तुम्हारा पत्तों वाला रूपक बहुत अच्छा लगा—क्योंकि सच तो यही है, दबे हुए विचार धीरे-धीरे शाख से टूटकर बिखर जाते हैं।
जवाब देंहटाएंआपकी उत्साहवर्धन करती और सृजन के मर्म को उजागर करती प्रतिक्रिया के लिए सादर नमस्कार सहित हृदय से असीम आभार 🙏
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