दिन की गठरी से चुरा कर
थोड़ा सा समय..,
अपने लिए रखने की आदत
एक गर्भनाल से
बाँध कर रखती रही है
हमें..,
जब से तुम्हारे समय की गठरी की
गाँठ खुली है
हम एक-दूसरे के लिए अजनबी
से हो गए हैं
पलट कर देखने पर हमारा
जुड़ाव …,
अब तो बीते जमाने की
बात भर लगने लगा है
***
बड़ी भावुक शब्दयात्रा !
जवाब देंहटाएंविचाराभिव्यक्ति हेतु सादर धन्यवाद प्रिया जी !
हटाएंबदलते हुए समय की दास्तान
जवाब देंहटाएंविचाराभिव्यक्ति हेतु सादर धन्यवाद अनीता जी !
हटाएंमन बींध गये शब्द... गहन भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी।
जवाब देंहटाएंसादर।
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नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १४ अक्टूबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार सहित धन्यवाद श्वेता पांच लिंकों का आनन्द में सम्मिलित करने हेतु ! आपकी हौसला अफ़ज़ाई मेरे लिए अनमोल है ,सस्नेह ..,
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंसुन्दर सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद सर !
जवाब देंहटाएंये अजनबीपन बहुत ही टीस देता है...
जवाब देंहटाएंपर क्या करें इस बदलाव को स्वीकारने के सिवा कोई और ऑप्शन भी कहाँ होता है...काश दूसरा भी इसे समझे और वापस जुड़े... मन से ।
सारगर्भित विचाराभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सुधा जी !
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंसुन्दर सराहना के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद हरीश जी !
हटाएंदिन की गठरी से चुरा कर
जवाब देंहटाएंथोड़ा सा समय..,
अपने लिए रखने की आदत
एक गर्भनाल से
बाँध कर रखती रही है
हमें................
" मार्मिक रचना "
सुन्दर सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद अनुज !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुन्दर सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद सर !
हटाएंवक़्त की चाल कई बार खुद को खुद से काट देती है ...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सहित बहुत-बहुत धन्यवाद नासवा जी !
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