तुम्हारे मीठे-तीखे शब्दों की एक
खेप को बड़ा संभाल के रखा था।
सोचा, कभी मिलेंगे तो
मय सूद तुम्हें लौटा दूंगी।
अचानक कल तुम मिले भी
अचेतन मन ने धरोहर टटोली भी।
मगर तुम्हारी धरोहर लौटाने से पहले ही
भावनाओं के दरिया की बाढ़ बह निकली।
और मैं न चाहते हुए अनचाहे में ही सही
फिर से तुम्हारी कर्ज़दार ही ठहरी।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-11-2020) को "कैसा जीवन जंजाल प्रिये" (चर्चा अंक- 3896) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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मेरे आरम्भिक दिनों की रचना को चर्चा में मान देने के लिए असीम आभार सर !
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सखी.
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंआपका उत्साहवर्धन सदैव प्रोत्साहित करता है लेखन हेतु...असीम आभार सर !
हटाएंआप ने मेरे मन के भावोंको अभिव्यक्ति दे दी
जवाब देंहटाएंवाह
आपकी अभिव्यक्ति से मेरे भावों को भी सार्थकता मिली. हृदय से आभार अनीता जी .
हटाएंकुछ कर्ज ऐसा ही होता है जो चुकाया नहीं जा सकता । अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति से सृजन को मान मिला ..हार्दिक आभार अमृता जी ।
हटाएंवाह! बहुत ही सुंदर मनको छूती अभिव्यक्ति आदरणीय मीना दी।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए आपका स्नेहिल आभार अनीता!
हटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति - -
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार शांतनु जी.
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