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शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

"वो" (2)

  (द्वितीय भाग)

आजकल लड़कियों के उत्थान और शिक्षा-दीक्षा के प्रचलन पर बड़ा जोर है ,साक्षरता का प्रतिशत भी उर्ध्वमुखी हो गया है लेकिन चालीस-पचास साल पहले हालात कुछ और ही हुआ करते थे। लड़कियों को शिक्षा के नाम पर गृहकार्य में निपुण होना अनिवार्य था , छोटी उम्र में विवाह होने के कारण उनकी प्रवेशिका शिक्षा पिता के घर और शेष जीवन पर्यन्त पति के घर सम्पन्न होती थी। बरजी काकी का ब्याह सात वर्ष की उम्र में दस वर्ष के रामकुमार से हो गया था। कहते हैं सात साल की बहू को गोद में उठा कर आंगन में नाची थी उसकी सास। दो दिन बाद बहू को विदा कर दिया क्योंकि गौना तभी होना था जब लड़की समझदार हो जाए और समझदारी की उम्र तेरह या चौदह वर्ष होती थी। काकी की विदाई के बाद घर के काम-धन्धे पुराने ढर्रे पर चल पड़े। रामकुमार काका को घर की बड़ी जिम्मेदारियाँ  सौंपी जाने लगी जैसे मिट्टी के बर्तन बनाने में सहायक का काम , उन्हें बेचने का काम और पारिवारिक उत्सवों में शामिल होने का काम। साल भर में काका कुछ  ज्यादा ही समझदार हो गए। एक दिन आंगन में कपड़ों की गठरी के साथ घूंघट में लिपटी पत्नि को लाकर खड़ा कर दिया और घोषणा कर दी अब यह यही रहेगी।
           हुआ यूं कि काका किसी बारात में गए थे लेकिन वे बारात में न जाकर ससुराल जा पहुँचे कि पत्नि को विदा कर दो घर में माँ बीमार है। आनन-फानन लड़की को तैयार कर घरवालों ने साथ चलने की तैयारी की तो मना कर दिया कि पास ही गाँव में रिश्तेदारी मे आए हैं घण्टे भर का रास्ता है चले जाएँगे। घर आकर माँ के सामने अपने मन की बात रखी कि अब यह यही रहेगी मेरे साथ। माँ-बाप ने सिर पीट लिया बहुतेरा समझाया मगर बेटे की जिद्द के आगे सारे प्रयास विफल हो गए। सुना है तब से अब तक काकी यही है कभी-कभार मायके जाती है , पाँच बच्चों की माँ है। सास सदा बरजी-बरजी आवाजें देती थीं इसलिए सभी को रिश्ते के नाम से पहले सम्बोधन में बरजी नाम जोड़ने की आदत पड़ गई। घर की कमाई का हिसाब , घर चलाने की जिम्मेदारी , बच्चों की परवरिश सब उसी के जिम्मे है सास-श्वसुर के देहावसान के बाद घर की सत्ता की पूर्ण स्वामिनी वही है। रामकुमार काका को काकी के हाथ का बना खाना और शाम को शराब की बोतल चाहिए बाकी दुनियादारी से उन्हे कोई लेना-देना नही , उनकी कर्म- स्थली मिट्टी के बर्तन बनाने वाली दो गज जमीन और चाक है।
                                बात पूरी होते ही मुक्ता ने दार्शनिक भाव से कहा- “कौन कहता है नूरजहाँ एक ही थी , यहाँ भी उसका दूसरा अवतार है बरजी काकी।" और अपनी जिज्ञासा शान्त कर करवट बदल कर सो गई मगर दीया के हाथ सोचने का नया सूत्र थमा दिया कि महिला सशक्तीकरण की अक्सर बातें चलती है , बहुत शोर मचता है , कभी शिक्षा की बात चलती है तो कभी विशेष अधिकारों की मगर स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली ही रहती है। दीया का मानना था कि उसे विकसित होने की अनुकूल परिस्थितियाँ मिले तो वह अपनी कुशलता की छाप हर युग में छोड़ती आई है।
                        सर्दियों में दिन बड़े जल्दी ढल जाते हैं शाम कब हुई और रात कब शुरु पता कम ही चल पाता है। एक दिन मुक्ता और दीया खाना बना रही थी और माँ आंगन में किसी काम में लगी थी कि अचानक गली में शोरगुल हुआ । माँ देखने गईं थोड़ी देर में चचेरा भाई और वे हँसते हुए अन्दर आ रहे थे , दीया ने पूछा  - क्या हुआ ? कुछ नही …., कह कर दोनों वहाँ से हट गए लेकिन घर के चलते-फिरते समाचार पत्र मुक्ता के रहते कोई बात गुप्त कैसे रह सकती थी। दूसरे दिन कॉलेज से आते ही दीदी का हाथ पकड़ कर खींचती हुई छत पर ले गई। और उतावलेपन से बोली - “कल क्या हुआ था पता है ? बरजी काकी शराब की दुकान पर पहुँच गई रिक्शा लेकर।वहाँ बैठे लोगों और दुकानवाले को खूब खरी-खोटी सुनाई और अपने घरवाले को रिक्शे में पटक कर घर ले आई। "कड़क और धांसू औरत है ना ?" आँखें झपकाते हुए उसने बात समाप्त की । इतने में ही माँ ने किसी काम के लिए आवाज दी तो दोनों बहनें  भागती हुई नीचे उतर आईं और  बरजी काकी का शौर्य गान वही थम गया ।

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(अगले अंक में समाप्त‎) 
             


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12 टिप्‍पणियां:

  1. मीना जी बहुत ही रोचक कहानी लिखी है आपने,एक प्रवाह लेखन में आपके और पाठक को बाँधने की क्षमता भी....अगली और अंतिम किस्त का इंतज़ार रहेगा। और एक विनम्र निवेदन है कृपया कहानियां और भी लिखें।😊

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  2. हौंसला अफजाई के लिए‎ तहेदिल से धन्यवाद श्वेता जी .आपके सुझाव कहानियां लिखने पर आगे भी कार्य‎ करने का प्रयास करुंगी .आपकी ऊर्जा‎वान प्रतिक्रिया‎ के लिए‎ पुन: बहुत बहुत‎ धन्यवाद .

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  3. बहुत सुंदर ! कहानी बयान करने का रोचक तरीका पाठकों को बाँधे रखता है और उत्सुकता बढ़ाता है। अगले अंक का इंतजार रहेगा ।

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  4. उत्साह‎वर्धन करने के लिए‎ तहेदिल से शुक्रिया मीना जी .आप सब की हौसला अफजाई ही कुछ‎ लिखने को प्रेरित करती है .

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  5. निमंत्रण पत्र :
    मंज़िलें और भी हैं ,
    आवश्यकता है केवल कारवां बनाने की। मेरा मक़सद है आपको हिंदी ब्लॉग जगत के उन रचनाकारों से परिचित करवाना जिनसे आप सभी अपरिचित अथवा उनकी रचनाओं तक आप सभी की पहुँच नहीं।
    ये मेरा प्रयास निरंतर ज़ारी रहेगा ! इसी पावन उद्देश्य के साथ लोकतंत्र संवाद मंच आप सभी गणमान्य पाठकों व रचनाकारों का हृदय से स्वागत करता है नये -पुराने रचनाकारों का संगम 'विशेषांक' में सोमवार १५ जनवरी २०१८ को आप सभी सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद !"एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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    1. निमन्त्रण के लिए‎ धन्यवाद ध्रुव सिंह जी .

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  6. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/01/52.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद राकेश कुमार‎ जी .

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    2. आदरणीय मीना जी -- बहुत सुंदर , सुघड़ लेखन में बंधी गद्य रचना एकदम तत्परता से सारा दृश्य आँखों के सामने जगा पाने में सक्षम है | बहुत अच्छी लगी बिरजी काकी की शौर्य गाथा -- मुझे भी उनसे मिलती जुलती अपने गाँव की कई वीरांगनाएँ याद आ गयी जिन्होंने इसी प्रकार के शौर्य कृत्य रचे थे | सादर सस्नेह शुभकामना --

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  7. बहुत‎ बहुत‎ धन्यवाद रेणु जी .कहानी आपको पसन्द‎ आई, मेरा लिखना सफल हुआ‎ .

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  8. बरजी काकी के माध्यम से समाज की कुरीतियों और उसका अलग अंदाज़ से निवारण को भी दिशा देने का प्रयास है ...

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    1. कहानी के कथा‎नक की सराहना के लिए‎ हृदयतल से धन्यवाद आपका नासवा जी.

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"