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रविवार, 1 जुलाई 2018

"परामर्श"

इतने गर्वीले कैसे हो चन्द्र देव ?
कितना इतराते हो पूर्णिमा के दिन ।

क्या उस वक्त याद नहीं रहते बाकी के पल छिन ?
पूरे पखवाड़े कलाओं के घटने बढ़ने के दिन ।

सुख-दुःख , हानि-लाभ तो सबके साथ चलते हैं ।
तुम्हारी देखा देखी में सीधे इन्सान भी इतरते हैं ।।

तुम तो देवता ठहरे , सब कुछ झेल लेते हो ।
हम इन्सानों को , दर्प की गर्त में ढकेल देते हो ।।

चंचलता छोड़ो देव तुम मान करो कुछ देवत्व का ।
फिर सीखेंगे हम भी निज अहं त्याग करने का ।।

                   XXXXXXX

6 टिप्‍पणियां:

  1. वा...व्व...मीना, तुमने तो अहंकार को स्पष्ट करने ले लिए चंद्रमा को भी लपेट लिया। बहुत सुंदर।

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  2. ये चाँद बेदर्दी है ...
    कहाँ रहता है इसमें देवत्व .... ये तो प्रेमी के दिल का आभास है ...
    हाँ देवता होता तो गुरूर न होता ...
    इस नज़र से भी चाँद को बाखूबी लिखा है आपने ...

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  3. बहुत बहुत धन्यवाद नासवा जी । आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती हैं ।

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"