समझे न जो कोई बात उसे समझायें कैसे ।
दिल में दबी बात लबों तक लायें कैसे ।।
सच और झूठ का फर्क है बहुत मुश्किल ।
जो सुने न मन की बात उसे सुनायें कैसे ।।
नाराज़गी तो ठीक , अजनबियत की कोई वजह ।
नाराज़ है जो बिना बात उसे मनायें कैसे ।।
बेपरवाही , अनदेखी ,बेकदरी जज़्बातों की ।
टूटे अगर यकीन उसे दिलायें कैसे ।।
मंजिल और राहें एक मगर सोचें जुदा जुदा ।
नादानियों के दौर में अब निभायें कैसे ।।
XXXXXXX
XXXXXXX
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 11जुलाई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"पांच लिंक़ो का आनंद में" मेरी रचना को शामिल कर मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद पम्मी जी ।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अनुराधा जी ।
हटाएंवाह बहुत सुन्दर गतिमान गजल ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
हटाएंसमझे न जो कोई बात उसे समझायें कैसे ।
जवाब देंहटाएंदिल में दबी बात लबों तक लायें कैसे ।।
क्या बात है मीना जी मर्मस्पर्शी कोशिश कर रहा हूँ गुनगुनाने की :)
इतनी अच्छी सी हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद संजय जी :)
हटाएंसच हैं मुश्किल है उसे समझाना जो समझना न चाहे ... पर प्रेम में ये दिल्लागी भी हो सकती है ।..
जवाब देंहटाएंसही कहते हैं आप । दिल्लगी समझने में लगे वक्त की कशमकश ना जाने क्या-क्या सोचने पर मजबूर कर देती है:) । विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार नासवा जी ।
जवाब देंहटाएं