कुछ कहना, कुछ सुनना;
अब बीतें दिनों की बातें हैं ।
अनजानी सी, अनदेखी सी;
डोर का धागा, अब टूट सा गया है ।।
तेरे सपने, तेरे अपने;
दुनियादारी और समझबूझ की बातें ।
तुम को 'तुम सा'
बनने से दूर करती हैं ।।
तेरे मेरे बीच का अपनापन,
जैसे एक नदी के दो पाट;
रहें साथ, चलें साथ ।
लेकिन पाटों का अलगाव,
कुछ सोचने को मजबूर करता है ।।
तेरी समझदारी की लहरों के बीच,
मेरी नादानियों का निर्झर सूख सा गया है ।
दुनियादारी की भीड़ के बीच,
अपनेपन का एक भीगा सा कोना
कहीं छूट सा गया है ।।
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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏
- "मीना भारद्वाज"